जयपुर,
राजस्थान में सभी 25 लोकसभा सीटें गंवाने के बाद कांग्रेस के पास अब खोने के लिए कुछ नहीं बचा है। लेकिन लोकसभा चुनावों में हार के बाद जिस तरह से पार्टी के भीतर तनाव और अंतर्कलह एकाएक सामने आ गई है, उससे कांग्रेस की नैया के पूरी तरह डूबने के आसार पैदा हो गए हैं।
राजस्थान में कांग्रेस की हार का ठीकरा मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के सिर फोड़ दिया गया है। सच भी है गहलोत अपनी परम्परागत सीट से अपने बेटे वैभव गहलोत को भी चुनाव नहीं जिता पाए। राजस्थान के खाद्य मंत्री रमेश मीणा ने हार के कारणों का पता लगाने की मांग करके गहलोत की मुसीबत और बढ़ा दी है। उधर कृषि मंत्री लाल चंद कटारिया ने इस्तीफ़े की पेशकश कर दी है। राज्य के कृषि मंत्री कटारिया ने सोमवार को अपना इस्तीफ़ा भेज दिया. लेकिन मुख्यमंत्री कार्यालय ने उनके इस्तीफ़े की पुष्टि नहीं की है. कटारिया तब से अपना फ़ोन स्विच ऑफ़ किए हुए हैं। पार्टी का एक वर्ग मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के पुत्र के चुनाव लड़ने पर सवाल उठा रहा है। सहकारिता मंत्री उदय लाल आंजना ने मीडिया से कहा अगर पार्टी समय रहते राष्ट्रीय लोकतान्त्रिक पार्टी के हनुमान बेनीवाल से गठबंधन कर लेती तो कांग्रेस को बहुत लाभ होता।
बीजेपी ने बेनीवाल के लिए नागौर सीट छोड़ दी थी और बदले में बेनीवाल की पार्टी ने अपने प्रभाव क्षेत्रों में बीजेपी का समर्थन किया था. आंजना ने कहा कि मुख्यमंत्री गहलोत के पुत्र वैभव गहलोत को पार्टी जालौर संसदीय क्षेत्र से मैदान में उतारती तो परिणाम कुछ और होते.
मुख्यमंत्री गहलोत के चुनाव क्षेत्र सरदारपुरा और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सचिन पायलट के टोंक विधानसभा क्षेत्र में कांग्रेस को करारी पराजय का मुंह देखना पड़ा है। बताया जा रहा है कि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी भी अशोक गहलोत से बुरी तरह खफा चल रहे हैं और राहुल गांधी ने गहलोत से मिलने से ही इंकार कर दिया है।
खबर है कि राहुल गाँधी ने पार्टी कार्यसमिति की बैठक में ये कहकर नाराजगी जताई है कि गहलोत ,कमलनाथ और पूर्व केंद्रीय मंत्री चिदंबरम पार्टी को चुनाव जितवाने की बजाय अपने बेटों को चुनाव जितवाने पर ज्यादा फोकस करते रहे। लिहाजा पार्टी चुनाव हार गई।
राजस्थान में दिसंबर 2018 में संपन्न विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने 200 में से 99 सीटें जीतकर बीजेपी को सत्ता से बाहर का रास्ता दिखा दिया था। मगर पांच महीने बाद जब लोकसभा चुनाव हुए तो कांग्रेस को करारी हार का सामना करना पड़ा।
राज्य में सियासत पर नज़र रखने वाले स्थानीय पत्रकार अवधेश अकोदिया कहते हैं, “कांग्रेस का प्रदर्शन 2014 के लोकसभा चुनावों से भी ख़राब रहा। पहले यह माना जा रहा था कि अगर चुनाव बेरोज़गारी या किसानों के मुद्दों पर आधारित होगा तो बीजेपी और कांग्रेस में कुछ मुक़ाबला होगा मगर देखते-देखते चुनाव भावनात्मक मुद्दों पर चला गया।
राजस्थान में कांग्रेस के नेता मंच और सभा जलसों में अपनी एकता की तस्वीर प्रस्तुत करते रहे. लेकिन हक़ीक़त इससे उलट थी. पार्टी में गुट विभाजन साफ़ दिखाई देता था और इसका पार्टी के प्रदर्शन पर बुरा असर पड़ा. स्थानीय पत्रकार राजीव जैन कहते हैं, “इन चुनावों में बीजेपी का प्रचार अभियान अधिक संगठित और नियोजित नज़र आया. बीजेपी ने कांग्रेस के मुक़ाबले ज़्यादा अच्छी रणनीति तैयार की और इसका उसे फ़ायदा भी मिला.”
जीत का श्रेय लेने के लिए तो बहुत दावेदार होते हैं. लेकिन हार तो यतीम होती है. इसीलिए राज्य की सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी में पराजय के लिए सब एक दूसरे को ज़िम्मेदार ठहरा रहे हैं.