संपादकीय, 19 दिसंबर 

आखिरकार वही हुआ जिसका डर  था। बढ़ती महंगाई, बढ़ती बेरोजगारी, घटती जीडीपी और धड़ाम होती अर्थव्यवस्था को संभालने और राष्ट्र को आर्थिक, सामाजिक तौर पर मजबूत करने की बजाय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी ने अपना पूरा ध्यान, राष्ट्रवाद, हिंदू राष्ट्र, नागरिकता संशोधन कानून और नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजनशिप की ओर लगाकर देश को खतरनाक मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया है।

दिल्ली, लखनऊ, बिहार, पश्चिम बंगाल और तमाम शहरों में हो रहे विरोध प्रदर्शन, हिंसा और आगजनी की घटनाएं ये साबित कर रही हैं कि देश बेहद नाजुक स्थिति में हैं। एक ऐसी स्थिति में जहां सुप्रीम कोर्ट नागरिकता संशोधन कानून पर पुनर्विचार करने से इंकार कर चुका है, नागरिकता छिन जाने और देश से बाहर हो जाने की आशंका मुसलमान समुदाय के मन में घर कर चुकी है। ये केन्द्र सरकार की मोदी सरकार की नाकामी है कि अपने पिछले 5 साल के कार्यकाल में लिये गए तमाम नीतिगत फैसलों पर जिस तरह से जनता को समझाने में विफल रहने के बाद भी कोई सबक नहीं सीखा।

नागरिकता संशोधन कानून, नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजनशिप के बारे में अगर संसद में पेश किये जाने और उसे लागू किये जाने से पहले इसके बारे में जनता को बताया गया होता, सार्वजनिक प्रचार-प्रसार किया गया होता, जनता से राय-मशविरा किया गया होता तो हर कोई इस कानून की बारीकियों, खूबियों और खामियों के बारे में अच्छे से जान पाता, यानि जो विरोध, प्रदर्शन, हिंसा और आगजनी आज हम देख रहे हैं वो शायद देखने को नहीं मिलती। लेकिन जिस तरह से संसद में बहुमत के मुकाबले डंके की चोट पर नागरिकता संशोधन कानून को पास कर तुरत-फुरत लागू करने की जल्दबाजी सरकार ने दिखाई उससे मुस्लिम समुदाय के बीच गलत संदेश चला गया है । अब लोग न तो कानून पढ़ना चाह रहे हैं और न ही उन्हें कानून का ड्राफ्ट पढ़ा है। सोशल मीडिया, मैनस्ट्रीम  मीडिया, विपक्ष और इधर-उधर से जो कुछ बता दे रहा है, लोग उसे ही सच मान ले रहे हैं। भाजपा नेताओं के बयान औऱ कुछ अतिउत्साही युवा भाजपाईयों के फेसबुक अकाउंट पर लिखे जा रहे संबोधन देश में ध्रुवीकरण करने और देश को हिंदू राष्ट्र बनाने की ओर संकेत करते नजर आ रहे हैं।

अच्छा होता सरकार कानून को लागू करने से पहले इसकी जानकारी लोगों को सही तरीके से पहुंचाती। जम्मू-कश्मीर से धारा 370 हटाने औऱ राममंदिर पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने का मामला शांतिपूर्ण तरीके से निपटा चुकी केन्द्र सरकार इस मामले पर क्यों विफल हो गई। ये सवाल इसलिये है कि क्या इसके पीछे जानबूझकर कोई साजिश काम कर रही है। कहीं ऐसा तो नहीं कि हिंसा की इस आग में हिंदू औऱ मुसलमानों को आमने-सामने खड़ा करने की कोशिश की जा रही हो औऱ फिर  सरकार कहे कि देखिये भारत की जनता ही इस एक्ट का समर्थन कर रही है लेकिन कुछ मुट्ठीभर लोग वेबवजह हंगामा कर रहे हैं।

सबका साथ, सबका विकास और सबके विश्वास के साथ प्रधानमंत्री ने अपने दूसरे कार्यकाल की शपथ ली  थी।  उन्होंने मुसलमानों के साथ किये गए छल में छेद करने का ऐलान किया था, लेकिन देश के अलग-अलग शहरों से आ रही तस्वीरें तो कुछ और ही बयां कर रही है। अगर यही सबका साथ, सबका विकास है तो फिर केन्द्र सरकार नागरिकता संशोधन कानून औऱ एनआरसी पर सबका विश्वास हासिल क्यों नहीं कर पाई। क्यों असम में 15 लाख से ज्यादा हिंदू परिवार एनआरसी में शामिल होने से वंचित रह गए। पहले नोटबंदी, फिर आधार कार्ड, खाता खुलवाने, जिओ सिम हासिल करने के बाद नागरिकता साबित करने के लिए देश की जनता को मोदी सरकार फिर से क्यों लाइन लगाकर खड़े करवाना चाहती है। क्या हर शख्स को लाइन में लगा कर खड़ा कर दिये जाने को ही विकास कहते हैं। अगर यही विकास है तो ऐसा विकास किस काम का कि धूप में घंटों  लाइन में खड़े-खड़े ही किसी की मौत हो  जाए।

देेश के मशहूर इतिहासकार रामचन्द्र गुहा  का कहना है कि भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने का आईडिया अंग्रेजों ने दिया था। करीब 200 साल पहले आए इस यूरोपियन आईडिया ने 2019 के अंत में देश को खतरनाक मुहाने पर लाकर खड़ा कर दिया है। एक तरफ पाकिस्तान  पीओके को कब्जाने की तैयारी में हैं, एक तरफ चीन भारत की अंदरूनी स्थितियों का फायदा उठाने की फिराक में हैं, आर्थिक मोर्चों पर गड़बड़ हो चुकी नीतियों को सुधारने की बजाय एक देश, एक निशान, एक भाषा जैसे मुद्दे को क्यों हवा दी जा रही है।

रामचन्द्र गुहा ही नहीं देश के पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने भी देश के मौजूदा हालात पर चिंता जताई है। प्रणब मुखर्जी ने कहा कि दूसरों की आवाज को ही सुनना अगर बंद कर देंगे तो देश से लोकतंत्र खत्म हो जाएगा। पूर्व राष्ट्रपति ने कहा कि बहुमत का मतलब सबको साथ लेकर चलना होता है। मुखर्जी ने कहा कि भारत में 13 अरब लोगों की आबादी 7 प्रमुख धर्मो का पालन करती है। 122 भाषा और 1600 बोलियां देश में बोली जाती हैं, फिर भी सब एक संविधान के नीचे रहती हैं। एक प्रणाली एक साथ और एक पहचान के साथ, यही भारत है। अगर इस पहचान को मिटाने की कोशिश की गई तो भारत जिस वजह से पहचाना जाता था, उन पहचानों का नामों-निशां नहीं बचेगा।

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