साभार : समरेन्द्र सिंह
मोहनदास करमचंद गांधी को हम एमके गांधी, मिस्टर गांधी, महात्मा गांधी कहें, या बापू और राष्ट्रपिता कहें, या फिर कुछ न कहें इससे उन्हें क्या फर्क पड़ता है? वो तो काफी पहले इस दुनिया से जा चुके है. अब उन्हें प्रेम करना है या नफरत यह हमको तय करना है. देश और समाज के प्रति उनके योगदान का सम्मान करना है या अपमान यह भी हमें ही तय करना है. और यकीन मानिए कि हम उन्हें प्रेम करते हैं या नफरत इससे उनको कोई फर्क नहीं पड़ता. तब भी नहीं पड़ता था जब वो शारीरिक तौर पर जिंदा थे. उन्हें बस यह बात मालूम थी कि सत्य और अहिंसा के रास्ते पर चलते हुए न्याय और बराबरी की लड़ाई पूरी ईमानदारी और पूरी प्रतिबद्धता से लड़नी चाहिए. और वो लड़े. जीवन भर लड़े. जब पारी खत्म हो गई, जब “उनके ईश्वर” ने “उनके शरीर से” जो काम लेना था वो ले लिया और जब लक्ष्य पूरा हो गया तो उन्हें अपने पास वापस बुला लिया. व्यक्ति चला गया. विचार रह गए. यही होता है. महापुरुष विचार में परिवर्तित हो जाते हैं. उनके विचार समाज को रोशनी देते रहते हैं.
मैं और मेरे जैसे तमाम लोग देख रहे हैं कि हाल के दिनों में एक तबका बहुत तेजी से उभरा है. वह तबका है नाथूराम गोडसे का तबका. ये लोग गांधी को लगातार गाली देते हैं. उन्हें खारिज करने की कोशिश करते हैं. उनके प्रति अपनी नफरत का प्रदर्शन करते हैं. वो कुछ अलग नहीं कर रहे. गोडसे भी जब जिंदा था, तो लगातार गांधी की हत्या के बारे में ही सोचता रहता था. कई प्रयास के बाद वह उन्हें गोली मारने में कामयाब हो गया. गांधी की मृत्यु हो गई. लेकिन गांधी मरने के बाद भी जिंदा रहे. इस देश के अनगिनत लोगों में जिंदा रहे. गांधी जिंदा हैं. वो इस देश और दुनिया की हवा और मिट्टी में जिंदा हैं. पेड़ और पौधों में जिंदा हैं. बच्चों की मुस्कान में जिंदा हैं. नफरत और भय के विरुद्ध उठने वाली हर आवाज में जिंदा हैं. मतलब गोडसे उनको मार कर भी मार नहीं सका. इसलिए गोडसे प्रजाति के जीव आज भी गांधी को मारने की कोशिश कर रहे हैं. और “वो बुड्ढा” इतना जीवट है कि मर ही नहीं रहा. उसके विचार इतने जीवंत हैं कि खत्म ही नहीं हो रहे.
इसलिए अब गोडसे के अनुयायियों ने अपना ब्रह्मास्त्र चला है. इसे आखिरी दांव समझिए. वो अब गांधी को “अपनाने” की बात कह रहे हैं. गांधी को समझे बगैर उन्हें अपनाने की बात कह रहे हैं. वो गांधी की स्वच्छता के सिद्धांत को छद्म तौर पर अपनाना चाहते हैं. मतलब मन चाहे जितना भी मैला बने रहे, दिल और दीमाग में चाहे जितनी भी नफरत भरी रहे, कम से कम बाहरी आवरण तो साफ हो जाए! इसलिए वो भारत हो या फिर अमेरिका, दिल्ली हो या फिर ह्यूस्टन वो गांधी के इस “भ्रामक पुतले” को खड़ा कर देते हैं. लेकिन इनका झूठ, इनका पाखंड तुरंत जाहिर हो जाता है. क्योंकि इनका गांधी नफरत की बात करता है और तमाम “गोडसे” ताली बजाते हैं. उधर दूर अनगिनत लोगों में मौजूद सच्चा गांधी मुस्कुराने लगता है. क्योंकि उन्हें मालूम है कि इस लड़ाई में गोडसे की जमात हारेगी और जीत सच्चे गांधी की होगी.
गोडसे की जमात को यह समझना चाहिए कि गांधी और बुद्ध मरा नहीं करते. न गोली से ना ही पाखंड से. न वार से न घात से. वो जिंदा रहते हैं. और वो तब तक जिंदा रहेंगे जब तक धरती पर एक कतरा जीवन भी शेष रहेगा. जब तक जीवों में प्रेम करने की इच्छा रहेगी. प्रेम करने का हौसला रहेगा.
गांधी और उग्र हिंदू प्रदर्शनकारियों के बीच बातचीत (कोलकाता. 13 अगस्त, 1947)
प्रदर्शनकारी : पिछले साल 16 अगस्त को जब हिंदुओं के खिलाफ सीधी कार्रवाई की गई थी तब तो आप हमारी रक्षा के लिए नहीं आए. और अब मुसलमानों के इलाकों में तनिक सा उपद्रव होने पर आप उनकी रक्षा के लिए दौड़े-दौड़े आए हैं. हम नहीं चाहते कि आप यहां रहें.
गांधी जी : अगस्त 1946 के बाद जाने कितना-कुछ क्या हो चुका है. उस समय मुसलमानों ने जो किया वह बिल्कुल गलत था. लेकिन 1947 में 1946 का बदला लेने से क्या लाभ? मैं तो नोआखाली जा रहा था. जहां आपके ही भाई मेरी उपस्थिति चाहते थे. लेकिन अब देखता हूं कि मुझे यहीं रहकर नोआखली की सेवा करनी होगी. आपको यह समझ लेना चाहिए कि मैं यहां केवल मुसलमानों की सेवा के लिए नहीं आया हूं, बल्कि हिंदू और मुसलमान और उसी तरह सबकी सेवा के लिए आया हूं. जो लोग पाशविक कृत्य कर रहे हैं वे अपने को तो कलंकित कर ही रहे हैं उस धर्म को भी कलंकित कर रहे हैं जिसके वे प्रतिनिधि हैं. मैं अपने को आपके संरक्षण में सौंपता हूं. आप चाहें तो मेरे खिलाफ खड़े हो सकते हैं और उल्टी भूमिका निभा सकते हैं. मैं तो लगभग जीवन के अंतिम छोर पर पहुंचा हूं. मुझे बहुत समय जीवित नहीं रहना है. लेकिन मैं आपसे कहे देता हूं कि आप अगर फिर पागल हो उठे, तो मैं वह सब देखने के लिए जिंदा नहीं रहूंगा. मैंने यही चेतावनी नोआखाली के मुसलमानों को भी दी है और मुझे ऐसा कहने का अधिकार भी है. इससे पहले कि नोआखाली के मुसलमान फिर से उन्मत्त और बर्बर हो उठे, वे मुझे मृत पाएंगे. आपको यह बात समझ में क्यों नहीं आती कि यह कदम उठाकर मैंने नोआखाली में शांति स्थापित करने की सारी जिम्मेदारी शहीद सुहरावर्दी और उनके मित्रों पर – जिनमें मियां गुलाम सरवर और अन्य लोग भी शामिल हैं – डाल दी है. यह कोई छोटी बात नहीं है.
प्रदर्शनकारी : हम आपसे अहिंसा का उपदेश नहीं सुनना चाहते. आप यहां से चले जाएं. हम मुसलमानों को यहां नहीं रहने देंगे.
गांधी जी : इसका मतलब यह हुआ कि आपको मेरी सेवाओं की जरूरत नहीं है. यदि आप मेरे साथ सहयोग करेंगे और मुझे अपना काम करने देंगे, तो इससे ऐसा वातावरण बनेगा कि हिंदू लोग उन सभी जगहों पर वापस जाकर रह सकेंगे, जहां से उन्हें खदेड़ दिया गया है. इसके विपरीत, पुरानी बातों और शत्रुता को याद रखने से आपका कोई हित नहीं होनेवाला है.
प्रदर्शनकारी : (एक 18 साल का युवक बीच में बोल पड़ा) इतिहास बताता है कि हिंदू और मुसलमान कभी मित्र नहीं रह सकते. जो हो जबसे मेरा जन्म हुआ है मैंने उन्हें हमेशा लड़ते हुए ही पाया है.
गांधी जी : खैर, मैंने इतिहास को जितना देखा है उतना आपमें से किसी ने नहीं देखा होगा और मैं आपसे कहता हूं कि मैं कई ऐसे हिंदू लड़कों को जानता हूं जो मुसलमानों को चाचा कह कर पुकारते हैं. हिंदू और मुसलमान एक दूसरे के तीज-त्योहारों में और उत्सवों में भाग लिया करते थे. आप मुझसे जबरदस्ती यह स्थान छोड़ने के लिए कहते हैं लेकिन आपको मालूम होना चाहिए कि मैंने दबाव में आकर कभी कोई काम नहीं किया है. यह मेरे स्वभाव के विरुद्ध है. आप मेरे कार्य में बाधा डाल सकते हैं. मेरी हत्या तक कर सकते हैं. मैं पुलिस की मदद नहीं लूंगा. आप मुझे इस घर से बाहर जाने से रोक सकते हैं. लेकिन मुझे हिंदुओं का शत्रु कहने से आपका क्या लाभ होगा? मैं इसे स्वीकार नहीं करुंगा. मैं यह स्थान छोड़ कर चला जाऊं, इसके लिए आपको मुझे यकीन दिलाना होगा कि मैंने यहां आने में भूल की है. ….. नौजवानों, मैं आप लोगों से यह पूछता हूं कि मैं जो जन्म से, धर्म से और रहन-सहन में पूर्णतया हिंदू हूं, हिंदुओं का शत्रु कैसे हो सकता हूं? क्या इससे आपकी असहिष्णुता लक्षित नहीं होती?
जब गांधी ने समझाया सत्याग्रह का अर्थ
राम मनोहर लोहिया गांधी जी के बारे में लिखते हैं कि उनमें ऐसे गुण थे जो किसी महिला को जो अपना पुत्र खो चुकी है या किसी पुरुष को जो अपनी प्रेमिका खो चुका है, सांत्वना दे सकते थे. यह बहुत ही विचित्र बात है. लेकिन है. सभी दुखियों और कष्टपीड़ित लोगों को गांधी में राहत मिली और वो संसार से विदा हुए तो विश्व के लाखों-करोड़ों लोगों के हृदय से शोक का सागर उमड़ पड़ा. ऐसा शायद कभी नहीं देखा गया था. पेरिस, न्यूयॉर्क, बर्लिन और मास्को से मिली छोटी-छोटी खबरें-कहानियां बताती हैं कि कैसे टैक्सी वाले, कुली, मजदूर, किसान और स्कूल अध्यापक को दुनिया में गांधी की अनुपस्थिति का अहसास हुआ. आखिर यह गुण क्या था? इसके बारे में लोहिया आगे लिखते हैं कि गांधी जी “एक व्यक्ति को किसी मदद के बिना भी अन्याय का विरोध करने की क्षमता देते हैं. यह महात्मा गांधी के जीवन और कार्यों की महानतम विशेषता थी.”
अन्याय का विरोध करने के लिए गांधी जी ने दुनिया को सत्याग्रह का मंत्र दिया. हालांकि बापू यह मानते थे कि सत्याग्रह का इस्तेमाल विकट परिस्थितियों में होना चाहिए. आए-दिन और बात-बात पर नहीं. और सत्याग्रह के लिए हर कीमत चुकाने को तैयार रहना चाहिए. यहां तक कि प्राण भी.
इसे समझने के लिए आप उनका दक्षिण अफ्रीका का यह भाषण पढ़िये और आज के आंदोलनकारियों के बारे में सोचिए जो पुलिस के पहुंचने पर महिलाओं के कपड़े पहन कर भाग निकलते हैं या फिर रैली निकालते वक्त महिलाओं और बच्चों को आगे कर देते हैं ताकि पुलिस लाठीचार्ज नहीं करे. गांधी जी ने यह भाषण दक्षिण अफ्रीका के जोहानिसबर्ग में 11 सितंबर, 1906 को दिया था. तब वो वहां रह रहे भारतीयों को एशियाई अधिनियम संशोधन अध्यादेश के खिलाफ लामबंध कर रहे थे.
गांधी जी का भाषण (जोहानिसबर्ग, 11 सितंबर, 1906)
मैं जानता हूं कि प्रतिज्ञाएं, व्रत आदि किसी गंभीर प्रसंग पर ही लिए जाते हैं और लिए भी जाने चाहिए. उठते-बैठते प्रतिज्ञा करने वाला निश्चय ही प्रतिज्ञा भंग कर सकता है. यदि हमारे समाजिक जीवन में, इस देश में प्रतिज्ञा के योग्य किसी अवसर की कल्पना मैं कर सकता हूं, तो वह अवसर यही है. बहुत सावधानी से और डर-डर कर कदम रखना बुद्धिमानी है. किंतु डर और सावधानी की भी सीमा होती है. उस सीमा पर हम पहुंच चुके हैं. सरकार ने सभ्यता की मर्यादा तोड़ दी है. उसने हमारे चारों ओर जब दवानल सुलगा रखा है तब भी यदि हम बलिदान की पुकार न करें और आगे-पीछे देखते रहें तो हम नालायक और नामर्द साबित होंगे.
अत: यह शपथ लेने का अवसर है, इसमें तनिक भी शंका नहीं. पर यह शपथ लेने की हममें शक्ति है या नहीं. वह तो हर एक को अपने लिए सोचना होगा. ऐसे प्रस्ताव बहुमत से पास नहीं किए जाते. जितने लोग शपथ लेंगे उतने ही उससे बंधते हैं. ऐसी शपथ दिखावे के लिए नहीं ली जाती. उसका यहां की सरकार, बड़ी सरकार या भारत सरकार पर क्या असर होगा इसका कोई तनिक भी ख्याल न करे. हर एक को अपने हृदय पर हाथ रख कर उसे ही (अपने हृदय को ही) टटोलना है. और यदि अंतरात्मा कहती है कि शपथ लेने की शक्ति है, तभी शपथ ली जाए और वह शपथ फलेगी.
अब दो शब्द परिणाम के विषय में. अच्छी से अच्छी आशा बांधकर तो यह कह सकते हैं कि यदि सब लोग शपथ पर कायम रहे और भारतीय समाज का बड़ा हिस्सा शपथ ले सके, तो यह अध्यादेश एक तो पास नहीं होगा और यदि पास हो गया तो तुरंत रद्द हुए बिना नहीं रहेगा. समाज को अधिक कष्ट न सहना पड़ेगा. हो सकता है कि कुछ भी कष्ट न सहना पड़े. पर शपथ लेने वाले का धर्म जैसे एक ओर श्रद्धापूर्व आशा रखना है, वैसे ही दूसरी ओर नितांत आशा रहित होकर शपथ लेने को तैयार होना है. इसलिए मैं चाहता हूं कि हमारी लड़ाई में जो कड़वे से कड़वे परिणाम सामने आ सकते हैं, उनकी तस्वीर इस सभा के सामने खींच दूं.
मान लीजिए कि यहां उपस्थित हम सब लोग शपथ लेते हैं. हमारी संख्या अधिक से अधिक तीन हजार होगी. यह भी हो सकता है कि बाकी के दस हजार शपथ न लें. शुरू में हमारी हंसी होनी ही है. इसके अलावा इतनी चेतावनी दे देने पर भी यह बिल्कुल संभव है कि शपथ लेने वालों में कुछ या बहुत से पहली कसौटी में ही कमजोर साबित हो जाएं. हमें जेल जाना पड़े. जेल में अपमान सहने पड़ें. सख्त मशक्कत करनी पड़े. उद्धत संतरियों की मार भी खानी पड़े. जुर्माने हों. कुर्की में माल-असबाब भी बिक जाए. यदि लड़ने वाले बहुत थोड़े रह गए, तो आज भले हमारे पास बहुत पैसा है, कल हम कंगाल बन सकते हैं. हमें निर्वासित भी किया जा सकता है. जेल में भूख रहने और दूसरे कष्ट सहते हुए हममें से कुछ बीमार हो सकते हैं और कुछ मर भी सकते हैं.
अर्थात थोड़े में कहा जा सकता है कि जितने कष्टों की आप कल्पना कर सकते हैं वे सभी हमें भोगने पड़ें. और इसमें कुछ भी असंभव नहीं है. फिर भी समझदारी इसी में है कि यह सब सहन करना होगा. यह मान कर ही हम शपथ लें. मुझसे कोई पूछे कि इस लड़ाई का अंत क्या होगा और कब होगा, तो मैं कह सकता हूं कि अगर सारी कौम लड़ाई में पूरी तरह पास हो गई तो लड़ाई का फैसला तुरंत हो जाएगा और अगर संकट का सामना होने पर हममें से बहुतेरे फिसल गए, तो लड़ाई लंबी होगी. लेकिन इतना तो मैं हिम्मत के साथ और निश्चयपूर्वक कह सकता हूं कि मुट्ठीभर लोग भी अगर अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ़ रहे, तो इस लड़ाई का एक ही अंत समझिए – अर्थात इसमें हमारी जीत ही होगी.
अब मेरी व्यक्तिगत जिम्मेदारी के बारे में दो शब्द. मैं एक ओर तो प्रतिज्ञा की जोखिम बता रहा हूं पर साथ ही आपको शपथ लेने की प्रेरणा भी दे रहा हूं. इसमें मेरी अपनी जिम्मेदारी कितनी है, इसे मैं पूरे तौर पर समझता हूं. यह भी संभव है कि आज के जोश या गुस्से में आकर इस सभा में उपस्थित लोगों का बड़ा भाग प्रतिज्ञा कर ले पर संकट के समय कमजोर साबित हो और मुट्ठीभर लोग ही अंतिम ताप सहन करने के लिए बच जाएं फिर भी मुझ जैसे आदमी के लिए तो एक ही रास्ता होगा- मर मिटना, पर इस कानून के आगे सिर न झुकाना.
मैं तो मानता हूं कि फर्ज करो ऐसा हो – ऐसा होने की संभावना तो बिल्कुल ही नहीं है फिर भी फर्ज कर लें कि सब गिर गए और मैं अकेला ही रह गया तो भी मेरा विश्वास है कि प्रतिज्ञा का भंग मुझसे हो ही नहीं सकता….. दूसरे कुछ भी करें. मैं खुद तो मरते दम तक उसका पालन करुंगा.
….जारी….
लेखक एनडीटीवी इंडिया के पूर्व पत्रकार हैं।