फ्लोरेंस नाइटिंगेल या ‘द लेडी विद द लैंप‘ एक ऐसी नर्स की कहानी है, जो क्रीमियन युद्ध में घायल सैनिकों के लिए नर्स नहीं बल्कि देवदूत बनकर आई थी।
फ्लोरेंस नाइटिंगेल गणित की जीनियस थी. अपनी इसी क़ाबिलियत की वजह से फ्लोरेंस ने इतने लोगों की जान बचाने में कामयाबी हासिल की थी. गणित के क्षेत्र में नाम रौशन करने की इसी तमन्ना की वजह से वो क्रीमिया के जंगी मैदान में गई थी और हज़ारों लोगों की जान बचाई. फ्लोरेंस की वजह से ही ब्रिटेन में नर्सिंग के पेशे और अस्पतालों का रंग रूप बदल गया था. फ्लोरेंस का जन्म इटली के शहर फ्लोरेंस में हुआ था. इसी वजह से उसे ये नाम दिया गया था. वो ब्रिटेन के एक उच्च मध्यम वर्गीय परिवार से ताल्लुक़ रखती थी. फ्लोरेंस नाइटिंगेल का बचपन ब्रिटेन के पार्थेनोप इलाक़े में पिता की सामंती जागीर में बीता था. सामंती परिवार से ताल्लुक़ रखने की वजह से फ्लोरेंस नाइटिंगेल और उसकी बहनों को घर पर तालीम दी गई थी. उन्हें शास्त्रीय शिक्षा के साथ-साथ दर्शन शास्त्र और आधुनिक भाषाओं की पढ़ाई कराई गई. बचपन से ही फ्लोरेंस की दिलचस्पी तमाम जानकारियां जुटाने में थी. इन जानकारियों को याद रखने की उसमें विलक्षण प्रतिभा थी. वो पहाड़े और लिस्ट को ज़ुबानी याद करने की उस्ताद थी.
मानवता की सेवा
फ्लोरेंस की बहन पार्थेनोप ने कहा कि उसे गणित में बहुत ज़्यादा दिलचस्पी थी. गणित के सबक़ और फॉर्मूले याद करने के लिए वो दिन-रात मेहनत किया करती थी. उन्नीसवीं सदी की परंपरा के मुताबिक़, 1837 में नाइटिंगेल परिवार अपनी बेटियों को यूरोप के सफ़र पर ले कर गया. ये उस वक़्त बच्चों की तालीम के लिए बहुत ज़रूरी माना जाता था. इस सफ़र के तजुर्बे को फ्लोरेंस ने बेहद दिलचस्प अंदाज़ में अपनी डायरी में दर्ज किया था. वो हर देश और शहर की आबादी के आंकड़े दर्ज करती थी. किसी शहर में कितने अस्पताल हैं. दान-कल्याण की कितनी संस्थाएं हैं, ये बात वो सफ़र के दौरान नोट करती थी. हालांकि फ्लोरेंस की मां इसके ख़िलाफ़ थी, फिर भी उसे गणित की पढ़ाई के लिए ट्यूशन कराया गया. सफ़र के आख़िर में फ्लोरेंस ने एलान किया कि ईश्वर ने उसे मानवता की सेवा का आदेश दिया है, तो उसके मां-बाप परेशान हो गए. फ्लोरेंस नाइटिंगेल ने अपने मां-बाप से कहा, “ईश्वर ने मुझे आवाज़ देकर कहा कि तुम मेरी सेवा करो. लेकिन उस दैवीय आवाज़ ने ये नहीं बताया कि सेवा किस तरह से करनी है.” फ्लोरेंस नाइटिंगेल एक ख़ूबसूरत युवती थी. वो पढ़ी-लिखी, क़ाबिल और समझदार थीं. उनके मां-बाप के पास काफ़ी दौलत थी. ऐसे में उसे शादी के रिश्ते आने ही थे. लेकिन फ्लोरेंस की दिलचस्पी ऐसे किसी भी ऑफ़र में नहीं थी. 1844 में फ्लोरेंस ने तय किया कि उसे नर्सिंग के पेशे में जाना है. लोगों की सेवा करनी है.
नर्सिंग की ट्रेनिंग
फ्लोरेंस ने कहा कि वो सैलिसबरी में जाकर नर्सिंग की ट्रेनिंग लेना चाहती है. लेकिन मां-बाप ने इसकी इजाज़त देने से इनकार कर दिया. लेकिन फ्लोरेंस मां-बाप को मनाने की कोशिश करती रही.
1849 में एक लंबे प्रेम संबंध के बाद फ्लोरेंस ने एक युवक से शादी से इनकार कर दिया और कहा कि उसकी क़िस्मत में कुछ और ही लिखा है. मां-बाप की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ फ्लोरेंस लंदन, रोम और पेरिस के अस्पतालों के दौरे करती रहती थी. साल 1850 में नाइटिंगेल दंपति को ये एहसास हो गया था कि उनकी बेटी शादी नहीं करेगी. जिसके बाद उन्होंने फ्लोरेंस को नर्सिंग की ट्रेनिंग लेने के लिए जर्मनी जाने की इजाज़त दे दी. फ्लोरेंस को ये आज़ादी मिलने से उनकी बहन पार्थेनोप को इतना ज़बरदस्त झटका लगा कि उसका सन् 1852 में नर्वस ब्रेकडाउन हो गया था. मजबूरी में फ्लोरेंस को अपनी ट्रेनिंग छोड़कर बहन की सेवा के लिए 1852 में वापस इंग्लैंड आना पड़ा. साल 1853 में फ्लोरेंस को लंदन के हार्ले स्ट्रीट अस्पताल में नर्सिंग की प्रमुख बनने का मौक़ा मिला. आख़िरकार सेवा का उसका ख़्वाब पूरा होने वाला था. 1853 में क्रीमिया का युद्ध शुरू हो गया था. अख़बारों में आ रही ख़बरों ने ब्रिटिश सैनिक अस्पतालों की दुर्दशा की दास्तानें बतानी शुरू कीं.
सैनिकों की मौत का आंकड़ा
ब्रिटेन के युद्ध मंत्री सिडनी हर्बर्ट, फ्लोरेंस को बख़ूबी जानते थे. हर्बर्ट ने फ्लोरेंस को 38 नर्सों के साथ तुर्की के स्कुतरी स्थित मिलिट्री अस्पताल जाने को कहा. ब्रिटेन के इतिहास में ये पहला मौक़ा था जब महिलाओं को सेना में शामिल किया गया था. जब वो तुर्की के बराक अस्पताल पहुंची, तो फ्लोरेंस ने देखा कि अस्पताल बेहद बुरी हालत में था. पूरे फ़र्श पर मल की मोटी परत बिछी हुई थी. फ्लोरेंस ने तुरंत ही अपनी साथी नर्सों को काम पर लगा दिया. पहले सबको अस्पताल को साफ़ करने को कहा गया. इसके बाद फ्लोरेंस ने सभी सैनिकों के ठीक खान-पान और सलीक़े के कपड़े पहनने का इंतज़ाम किया. ये पहली बार था कि सैनिकों को इतने सम्मान के साथ रखा जा रहा था. हालांकि फ्लोरेंस और उसकी टीम की तमाम कोशिशों के बावजूद सैनिकों की मौत का आंकड़ा बढ़ता जा रहा था. एक बार तो सर्दी में चार हज़ार सैनिक मारे गए. हालांकि फ्लोरेंस ने अस्पताल को काफ़ी बेहतर बना दिया था. फिर भी, वो मौत का ठिकाना बना हुआ था. 1855 की बसंत ऋतु में ब्रिटिश सरकार ने एक सैनिटरी कमीशन बनाकर स्कुतारी के अस्पताल के हालात का जायज़ा लेने के लिए भेजा. इस कमीशन ने पाया कि बराक अस्पताल तो एक सीवर के ऊपर बना था. नतीजा ये हुआ था कि मरीज़ गंदा पानी पी रहे थे. बराक अस्पताल और ब्रिटेन के क़ब्ज़े वाले दूसरे अस्पतालों की पूरी तरह साफ़-सफ़ाई की गई. इससे हवा की आवाजाही साफ़ हुई.
प्रेस और पब्लिक
इसका सबसे बड़ा फ़ायदा ये हुआ कि सैनिकों की मौत की संख्या काफ़ी घट गई. इस दौरान फ्लोरेंस नाइटिंगेल की हाथ में मशाल लिए हुए रात में घायल मरीज़ों की सेवा करने वाली तस्वीर अख़बारों में छपी, तो रातों-रात उसके हज़ारों फ़ैन बन गए. स्कुतारी के बराक अस्पताल में फ्लोरेंस के काम की वजह से अस्पतालों में सैनिकों की हालात में काफ़ी बेहतरी आई थी. इस बात की प्रेस और पब्लिक के बीच काफ़ी तारीफ़ हुई. लोग फ्लोरेंस के परिवार को उसकी तारीफ़ में कविताएं लिखकर भेजा करते थे. इसकी बाढ़ सी आ गई थी. ‘द लेडी विद द लैम्प’ के नाम से मशहूर फ्लोरेंस नाइटिंगेल की तस्वीरें स्कूल के बैग, चटाइयों और दूसरी चीज़ों पर छपने लगी थी. हालांकि ख़ुद फ्लोरेंस को इससे फ़िक्र होने लगी थी. वो सिलेब्रिटी नहीं बनना चाहती थी. क्रीमिया के युद्ध के बाद वो ब्रिटेन वापस आई, तो मिस स्मिथ के फ़र्ज़ी नाम से रहने लगीं. स्वदेश वापसी के बाद वो ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया से मिली महारानी भी फ्लोरेंस की बहुत बड़ी फ़ैन थीं. फ्लोरेंस ने महारानी को सैनिकों की बुरी हालत और मौत के सिलसिले को बयां किया. उन्होंने महारानी से गुज़ारिश की कि वो सेना की सेहत की पड़ताल के लिए एक जांच आयोग बनाएं.
फ्लोरेंस के नाम पर…
महारानी ने फ्लोरेंस के कहने पर विलियम फार और जॉन सदरलैंड को उसकी मदद के लिए लगाया. इन तीनों की जांच में पता चला कि मारे गए 18 हज़ार सैनिकों में से 16 हज़ार की मौत जंग के ज़ख़्मों की वजह से नहीं, बल्कि गंदगी और संक्रामक बीमारियों से हुई थी. यानी इन सभी सैनिकों की जान बचाई जा सकती थी, अगर अस्पतालों में साफ़-सफ़ाई के बेहतर इंतज़ाम होते. 1857 में जब रॉयल सैनिटरी कमीशन की रिपोर्ट तैयार हुई, तो फ्लोरेंस को अंदाज़ा था कि सिर्फ़ आंकड़ों की मदद से उसकी बात लोग नहीं समझ पाएंगे. तब फ्लोरेंस ने ‘रोज़ डायग्राम’ के ज़रिए लोगों को समझाया कि जब सैनिटरी कमीशन यानी साफ़-सफ़ाई आयोग ने काम करना शुरू किया, तो किस तरह सैनिकों की मौत का आंकड़ा तेज़ी से गिरा. ये पैमाना इतना कामयाब हुआ कि बहुत जल्द तमाम अख़बारों ने इसे छापा और दूर-दूर तक फ्लोरेंस का संदेश पहुंचाया. फ्लोरेंस की कोशिशों से ब्रिटिश फौज में मेडिकल, सैनिटरी साइंस यानी साफ़-सफ़ाई के विज्ञान और सांख्यिकी के विभाग बनाए गए. सन् 1859 में फ्लोरेंस नाइटिंगेल ने अपनी सबसे मशहूर किताब, ‘नोट्स ऑन नर्सिंग ऐंड नोट्स ऑन हॉस्पिटल्स’ प्रकाशित की. इसके अगले ही साल फ्लोरेंस के नाम पर ब्रिटेन में नर्सिंग स्कूल की स्थापना हुई. अगले कुछ दशकों मे फ्लोरेंस के काम की वजह से नर्सिंग के पेशे को काफ़ी सम्मान की नज़र से देखा जाने लगा. अस्पतालों में साफ़-सफ़ाई पर ज़ोर दिया जाने लगा.
फ्लोरेंस की सेहत
मरीज़ों को खुले और बड़े ठिकानों में रखा जाने लगा, ताकि उनकी सेहत जल्द सुधर सके. लेकिन, जिस दौरान फ्लोरेंस मरीज़ों के अच्छे रख-रखाव की जंग लड़ रही थी, उस वक़्त ख़ुद उसकी सेहत गिरने लगी. माना जाता है कि क्रीमिया में फ्लोरेंस को भयंकर बीमारी ब्रुसेलोसिस के कीटाणुओं का हमला झेलना पड़ा था. इस कीटाणु की वजह से तेज़ बुखार, डिप्रेशन और भयंकर दर्द हो जाता था. फ्लोरेंस इस बीमारी की वजह से बहुत कमज़ोर हो गई थी. वो अकेले रहती थी. लेकिन, बीमारी के दौरान भी वो तमाम आंकड़ों की मदद से ब्रिटेन की स्वास्थ्य सेवा में सुधार की जंग लड़ती रही. 1870 का दशक आते-आते फ्लोरेंस की मुहिम रंग लाने लगी थी हालांकि वो बीमार थी, मगर बेहद अमीर थी. वो अपनी निजी देखभाल का ख़र्च उठा सकती थी. लेकिन उसे पता था कि उस वक़्त ब्रिटेन के ज़्यादातर आम लोगों के लिए ये ख़र्च उठा पाना नामुमकिन था. ऐसे लोग सिर्फ़ एक-दूसरे की मदद ही कर सकते थे. ऐसे में फ्लोरेंस की किताब नोट्स ऑन नर्सिंग ने लोगों को समझाया कि वो कैसे बीमारी के दौरान एक-दूसरे के मददगार बन सकते हैं. कैसे वो बीमारों का ख़याल रख सकते हैं. अपने परिजनों-रिश्तेदारों और दोस्तों को बीमारी से उबरने में मदद कर सकते हैं. फ्लोरेंस का मक़सद समाज की सेवा का था. ताकि जनता बीमारी से जल्द उबर सके, भले ही कोई अमीर हो या ग़रीब.
भारत में साफ़ पानी की सप्लाई
फ्लोरेंस के मिशन का नतीजा ये हुआ कि ब्रिटेन ने नेशनल हेल्थ सर्विस की दिशा में आगे क़दम बढ़ाया. फ्लोरेंस नाइटिंगेल भारत में भी ब्रिटिश सैनिकों की सेहत को बेहतर करने के मिशन से जुड़ी हुई थी. वो इसके लिए अपने तुर्की के बराक अस्पताल के तजुर्बे का इस्तेमाल कर रही थी. साल 1880 का दशक आते-आते विज्ञान ने और भी तरक़्क़ी कर ली थी. तमाम डॉक्टरों की तरह फ्लोरेंस ने कीटाणुओं से बीमारी फैलने की बात पर यक़ीन करना शुरू किया था. इसके बाद फ्लोरेंस का ज़ोर भारत में साफ़ पानी की सप्लाई बढ़ाने पर हो गया. वो उस वक़्त भी आंकड़े जुटा रही थी. और इस दौरान फ्लोरेंस ने अकाल के शिकार लोगों की मदद के लिए मुहिम छेड़ दी. फ्लोरेंस का मक़सद ज़्यादा से ज़्यादा लोगों की जान बचाना और उन्हें साफ़-सुथरा माहौल देना था. फ्लोरेंस को लगता था कि भारत में अकाल के हालात उसी तरह हैं, जैसे उसने तुर्की के स्कुतारी में देखे थे. फ्लोरेंस को भारत के हालात के बारे में 1906 तक रिपोर्ट भेजी जाती रही थी. लंबी उम्र और सेवा के लंबे करियर के बाद 1910 में फ्लोरेंस नाइटिंगेल का 90 साल की उम्र में देहांत हो गया.
औरतों के लिए मिसाल
इससे पहले फ्लोरेंस को ब्रिटेन की सरकार ने ‘ऑर्डर ऑफ़ मेरिट’ के सम्मान से नवाज़ा. ये सम्मान पाने वाली फ्लोरेंस नाइटिंगेल पहली महिला थी. फ्लोरेंस नाइटिंगेल एक मज़बूत इरादों वाली महिला थी. अपनी सेवा भावना की वजह से वो दुनिया की तमाम औरतों के लिए मिसाल बन गई. लोगों तक अपनी बात पहुंचाने और उन्हें मनाने का फ्लोरेंस का तरीक़ा एकदम अलग था. इसकी मिसाल फ्लोरेंस का रोज़ डायग्राम है. गणित और सांख्यिकी का उसका ज्ञान सैन्य अस्पतालों और आम लोगों की सेहत की देख-भाल करने वाले सिस्टम को सुधारने में बहुत कारगर साबित हुआ. अपनी लोकप्रियता का बहुत चतुराई से फ़ायदा उठाकर फ्लोरेंस नाइटिंगेल ने सरकारों को लोगों की बेहतरी के लिए क़दम उठाने पर मजबूर किया. हेल्थ केयर सिस्टम में आज साफ़-सफ़ाई पर जो इतना ज़ोर दिया जाता है, वो ‘लेडी ऑफ़ द लैम्प’ की कोशिशों से ही मुमकिन हुआ. भारत भी फ्लोरेंस नाइटिंगेल का क़र्ज़दार है.