संपादकीय, 21 सितंबर 2019

छत्तीसगढ़ की सियासत में बीते कुछ हफ्तों से मीडिया की सुर्खियों में छाये हुए मंतूराम पवार ने राज्य की राजनीति को एक ऐसे दिलचस्प मोड़ पर पहुंचा दिया है। जहां कांग्रेस की बांछें खिली हुई हैं जबकि भाजपा का दम घुट रहा है। इन दो बड़े राष्ट्रीय दलों के बीच की लड़ाई में क्षेत्रीय दल जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़  घुन की तरह पिस रही है। सितंबर 2014 में  अंतागढ़ उपचुनाव में 7 करोड़ की हॉर्स ट्रेडिंग का शिकार बने मंतूराम पवार हर दिन नये-नये खुलासे कर रहे हैँ। लेकिन मंतूराम पवार के खुलासे और 7 करोड़ की राशि ने सियासत में हॉर्स ट्रेडिंग शब्द को फिर से लोगों की जुबां पर ला दिया है।

मौजूदा वक्त में घोड़ों की खरीद के लिए प्रयुक्त होने वाला शब्द राजनेताओं की  खरीद-फरोख्त करने में उपयोग होने लगा है। जनता जिसे चुनकर संसद या विधानसभा भेजती है वो चंद रुपयों की खातिर अपना ईमान, धर्म, नैतिकता और जवाबदेही सब बेच कर दूसरी पार्टी या सरकार में शामिल हो जाता है। जैसा कि 2014 में अंतागढ़ उपचुनाव में कांग्रेस ने मंतूराम पवार को अपना उम्मीदवार बनाया था, लेकिन चुनाव से ऐन पहले मंतूराम पवार ने चुनाव से अपना नाम वापस लेकर सबको चौंका दिया था। नतीजा कांग्रेस का उम्मीदवार खड़ा ही नहीं हो पाया और भाजपा प्रत्याशी की एकतरफा जीत हो गई। मंतूराम ने नाम वापसी का फैसला किसी दबाव में उठाया था या नहीं ये जांच का विषय है, लेकिन जब मंतूराम पवार ने खुद ये कबूल कर लिया है कि उन्हें नाम वापस लेने के लिए भाजपा की ओर से 7 करोड़ रुपये का लालच दिया गया था, तत्कालीन मंत्री राजेश मूणत के बंगले पर बैग में भरे 7 करोड़ रुपये मंतूराम पवार को दिखाये भी गये। नोटों के हरे-हरे बंडल देखकर मंतूराम पवार की आंखों में ऐसी ललाई आई कि बिना आव-ताव देखे उन्होंने चुनाव मैदान से हटने का संकल्प कर लिया। लेकिन चुनाव के 5 साल बाद भी जब 7 करोड़ की रकम मंतूराम पवार को पूरी नहीं मिल पाई तो मंतूराम खिसियाहट में भाजपा के खिलाफ खरीद-फरोख्त करने और नाम वापस लेने का दबाव डाले जाने का आरोप लगाकर मीडिया के सामने आ गए। मंतूराम पवार के इस बयान के बाद कांग्रेस पार्टी ने फौरन उन्हें लपक लिया  है। मंतूराम की आड़ में कांग्रेस को भाजपा पर राजनीतिक हमले करने का नया हथियार मिल गया है।

मंतूराम पवार अब सच बोल रहे हैं, या पहले झूठ बोल रहे थे।

सितंबर 2014 के अंतागढ़ उपचुनाव में कांग्रेस के प्रत्याशी रहे मंतूराम पवार वही व्यक्ति हैं जो पहले रमन सिंह शासनकाल में गठित एसआईटी की जांच पर सवाल उठाते रहे हैं और अपनी आवाज का वॉइस सैंपल देने से इँकार करते रहे हैं। लेकिन अब सूबे में सत्ता परिवर्तन के बाद मंतूराम पवार न सिर्फ अपनी आवाज का वॉइस सैंपल देने को तैयार हैं बल्कि अंतागढ़ उपचुनाव से ऐन पहले उन्होंने नाम वापस क्यों लिया, इसका पूरा किस्सा खुद मीडिया के सामने आकर और कोर्ट में 164 के तहत बयान दर्ज करा कर सुना दिया है। कोर्ट में कलमबद्ध बयान दर्ज कराने के दौरान मंतूराम पवार ने 7 करोड़ रुपये में नाम वापसी का सौदा होने का जिक्र किया है और इस सौदेबाजी के लिए उन्होंने पूर्व सीएम रमन सिंह, पूर्व मंत्री राजेश मूणत, कांग्रेस नेता फिरोज सिद्दीकी, अजीत जोगी, अमित जोगी आदि का जिक्र किया है। पहले अपनी जान जाने को लेकर डर रहे मंतूराम पवार अब एकाएक साहसी हो गए हैं और जान की भी परवाह नहीं कर रहे हैं, उनका कहना है कि वो सच के साथ खड़े हैं, यानि कि मंतूराम पहले सच के साथ नहीं खड़े थे। हालांकि कोर्ट अजीत जोगी, अमित जोगी और रमन सिंह के दामाम डॉ. पुनीत गुप्ता का वॉइस सैंपल लेने की अनुमति देने से इंकार कर चुका है, ऐसे में एसआईटी सिर्फ मंतूराम पवार का वॉइस सैंपल लेगी।

एसआईटी के पास अंतागढ़ उपचुनाव के एक साल बाद वायरल हुए ऑडियो की ओरिजनल रिकॉर्डिंग नहीं है, इसलिये वायल ऑडियो की सत्यता की तह तक पहुंचना एसआईटी के लिए भी नाकों चने चबाना जैसा काम है। लेकिन छत्तीसगढ़ में घटी इस सियासी घटना ने पूरे देश का ध्यान इस ओर खींच दिया है कि हॉर्स ट्रेडिंग या चाणक्य नीति सियासत में क्या कुछ नहीं करवा सकती है। ये भी सच है कि मंतूराम पवार जैसे विरले लोग कभी-कभी ही पैदा होते हैं। जो पहले रुपयों के लिए बिकने को तैयार होते हैं और जब रुपये नहीं मिलते हैं तो बगावत पर उतर आते हैँ। हिंदुस्तान की सियासत में पलटी .00मारने वाले मंतूराम पहले व्यक्ति नहीं है बल्कि इसका एक लंबा इतिहास है।

1967 से हो रहा है भारतीय राजनीति में खरीद-फरोख्त का खेल।

80 और 90 के दशक में अखबारों में और राजनीति की किताबों में एक शब्द बहुत प्रचलन में था आया राम-गयाराम। 20वीं शताब्दी में ये शब्द हॉर्स ट्रेडिंग में बदल गया। 1967 में विधानसभा चुनावों के दौरान हरियाणा के विधायक गया लाल ने 15 दिनों के अन्दर ही 3 बार पार्टी बदली थी। आखिरकार जब तीसरी बार में वो लौट कर कांग्रेस में आ गए तो कांग्रेस के नेता बीरेंद्र सिंह ने प्रेस कांफ्रेस में कहा था कि ‘गया राम अब आया राम बन गए हैं।’ तब से राजनीति में दल-बदलुओं और सिर्फ स्वहित को सर्वोपरि रखने वाले नेताओं के लिए आया राम-गया राम शब्द की चलन शुरु हुआ। आया राम-गया राम की सियासत को रोकने के लिए 1985 में 52वें संविधान संशोधन के जरिए दलबदलने की प्रवृत्ति पर रोक लगाने के लिए दल-बदल विरोधी कानून भी लाया गया। लेकिन इससे ये सिलसिला रुका नहीं बल्कि दूसरे तरीके से उभर कर सामने आने लगा।

अमेरिकी और ब्रिटिश समाज में प्रचलित था हॉर्स ट्रेडिंग शब्द

1820 के आस-पास अमेरिका और ब्रिटेन में घोड़ों के व्यापारी अच्छी नस्ल के घोड़ों को खरीदने के लिए बहुत जुगाड़ और चालाकी का प्रयोग करते थे।  व्यापार का यह तरीका कुछ इस तरह का था कि इसमें चालाकी, पैसा और आपसी फायदों के साथ घोड़ों को किसी के अस्तबल से खोलकर कहीं और बांध दिया जाता था। तब अच्छी नस्ल का घोड़ा पाने के लिये लोगों को पैसों का लालच दिया जाता था। अब किसी पार्टी के नेता, विधायक, या चुनाव में खड़े हो रहे प्रत्याशी को लोभ-लालच देकर नाम वापस लेने के लिए हॉर्स ट्रेडिंग किया जाता है।

2014 में भाजपा की सरकार बनने से पहले दो बार यूपीए की सरकार बनी थी

2004 में बनी मनमोहन सिंह की सरकार लेफ्ट के सपोर्ट से बनी थी. जुलाई 2008 में एक वक्त ऐसा भी आया था कि लेफ्ट ने अपना समर्थन वापस ले लिया था. कारण था एक न्यूक्लियर समझौता जो कांग्रेस चाहती थी और लेफ्ट नहीं. लेफ्ट के समर्थन वापस लेने के बाद भाजपा ने नो कॉन्फिडेंस मोशन (अविश्वास प्रस्ताव) लाने और लोकसभा सांसदों के बीच वोटिंग करवाने की मांग की. इसी दौरान, भारत के संसदीय इतिहास में पहली बार तीन सांसद – फग्गन सिंह कुलस्ते, अशोक अर्गल, महावीर भगौड़ा  बीच संसद में नोट लहराने लगे. उनका कहना था कि अमर सिंह ने ये पैसे उन्हें दिए हैं।

 

 

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