संपादकीय, 13दिसंबर, 2019
एक था लुई 14वां और एक था नीरो, दोनों में एक समानता थी, एक खुद को भगवान मानकर खुद के आगे किसी की सुनता नहीं था और दूसरा कितना कुछ भी हो जाए हर समय चैन की बंशी बजाता रहता था। लेकिन भारत में इन दिनों नये जमाने के प्राणी हैं। जिनका जन्म आजादी के सालों बाद हुआ है लेकिन अब वो भारत का इतिहास दोबारा लिखना चाहते हैं। इन अवतारी प्रबुद्ध लोगों का मानना है कि जो कुछ भी अब तक किताबों में या इतिहास के ग्रंथों में लिखाया-पढ़ाया गया है वो सरासर गलत है। ताज्जुब तो इस बात का है कि उसी इतिहास, राजनीति और भूगोल को पढ़कर ये बड़े हुए हैं। लेकिन कहां से इनको ये दिव्य ज्ञान प्राप्त हुआ है कि इतिहास जो लिखा जा चुका है वैसा नहीं है बल्कि अब हम जो लिखेंगे वो ही सच्चाई है।
ये मेरे व्यक्तिगत विचार हैं और इनका किसी पार्टी या संस्था से लेना-देना नहीं हैं, लेकिन ऐसा मैं क्यों कह रहा हूं, उसके पीछे वजह है।
वजह है भारत की एकता में अनेकता वाली संस्कृति की। वजह है हिंदुस्तान की वसुधैव कुटुम्बकुम वाली अवधारणा की। वजह है अब तक भारत की विरासत रही गंगा-जमुनी सांस्कृतिक तहज़ीब की और वजह है एक अविकसित राष्ट्र से आगे बढ़कर दुनिया के विकसित देशों की श्रेणी में खुद को खड़े कर चुके भारत के भविष्य की चिंता को लेकर।
लेकिन बीते कुछ सालों से क्या हो रहा है। क्या देश तरक्की कर रहा है ? क्या देश आगे बढ़ रहा है ? इस सवाल पर कई भक्त टाइप लोगों का जवाब हां में हो सकता है, कि हां देश आगे बढ़ रहा है। इनकी ओर से जवाब में भारत सरकार की तमाम लोक कल्याणकारी योजनाओं को गिनाया जा सकता है। भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम और दुनिया घूम-घूमकर किये गए प्रचार को गिनाया जा सकता है। लेकिन क्या बात सिर्फ इतनी सी है। लोक कल्याणकारी योजनाएं तो हिंदुस्तान में पहली बार 1952 में हुए आम चुनावों के बाद से जारी हैं। इसरो की सफलताओं और उसके विकास की कहानी किसी से छुपी नहीं है। हिंदुस्तान को तो दुनिया में वास्कोडिगामा के जमाने से पहचान मिल चुकी है। तो क्या बात सिर्फ इतनी सी है?
नहीं बात इतनी ही नहीं है। बात ये है कि क्या देश में अब सिर्फ राष्ट्रवाद, पाकिस्तान, पीओके, हिंदू-मुसलमान, एनआरसी, सीएबी और येन-केन प्रकारेण चुनाव जीत लेना भर ही विकास और तरक्की का मुद्दा बचा है। लगातार बढ़ती महंगाई, गिरती जीडीपी, सुस्त पड़ी अर्थव्यवस्था, बढ़ती जनसंख्या, सुरसा की तरह बढ़ती बेरोजगारी, लगातार बंद हो रहे स्टार्टअप, चौपट हो रहे लघु उद्योग धंधे, पटरी से उतर चुकीं औद्योगिक इकाइयां, लगातार ऊपर बढ़ रहे क्राइम ग्राफ, महिला अत्याचार, व्यभिचार, सत्ता के लिए सांठ-गांठ और संवैधानिक शासन प्रणाली में नित रोज नये सर्कुलर निकालकर दबाई जा रही चौथे स्तंभ की आवाज मुद्दा नहीं है।
हिंदुस्तान की अवाम को ये याद रखना चाहिये कि जिंदगी में रंग तभी हैं, जब आपके पास चार दोस्त होते हैं। गुलदस्ता भी तभी खूबसूरत लगता है जब उसमें कई किस्मों के फूल रहते हैं। बगीचा भी तभी भरा-भरा लगता है जब उसमें विभिन्न किस्म के पौधे और अलग-अलग किस्म की घास सजाई जाती है। भारत भी कुछ ऐसा ही है। जिस देश में एक कोस पर पानी और चार कोस बोली बदल जाती हो वहां धर्म का मुल्लमा चढ़ाकर मानचित्र को सिर्फ एक रंग में रंगने की कोशिश की जा रही है। क्या ये इतना ज्यादा जरूरी है कि इसके जल्द से जल्द और अभी नहीं तो कभी नहीं वाली स्थिति के साथ तुरत-फुरत किया जाए। क्या सरकार की प्राथमिकता गिरती विकास दर, बंद होते कारखाने, बढ़ती बेरोजगारी और महंगाई को काबू में किया जाना होना चाहिये या फिर दूसरे देशों से आकर भारत में अवैध रूप से घुसे लोगों को स्थायी नागरिक बनाना होना चाहिये।
भारत में अवैध रूप से रह रहे हर व्यक्ति को मैं घुसपैठिया ही कहूंगा, क्योंकि उसके पास न तो वैध वीजा है और न ही बिना वीजा और पासपोर्ट के भारत में रहने का कोई अधिकार ही उसे प्राप्त है। तो क्या भारत सरकार 125 करोड़ की आबादी में कुछ करोड़ की आबादी और जोड़ना चाहती है। जिस देश में जनसंख्या विस्फोट पहले से बड़ी समस्या रही है वहां करोड़ों की आबादी जबरदस्ती थोपने की कोशिश करना कहां की समझदारी है।
जाहिर है बात इतनी सीधी तो कतई नहीं है। अगर अवैध प्रवासियों को भारत में रहने का अधिकार दिया जाना इतना जरूरी और आवश्यक होता तो खुद के बेघर हो जाने, खुद की पहचान खत्म हो जाने और संसाधनों के छिन जाने के डर से असमिया अस्मिता की रक्षा के लिए बीते चार दिनों से पूर्वोत्तर का खूबसूरत राज्य सुलग नहीं रहा होता।
अवैध प्रवासियों को भारतीय कहलाने का हक दिया जाना किसी पार्टी विशेष को कुछ करोड़ वोट ज्यादा तो दिला सकता है लेकिन भारत की तरक्की और भारत की जनता की मूलभूत जरूरतों की पूर्ति कभी नहीं कर सकता है। मेरी गुजारिश है देश के उन प्रबुद्ध लोगों से कि उनको कभी किसी पाठशाला में जो शिक्षा दी गई है, सिर्फ और सिर्फ उस पाठशाला के एजेंडे को भारतवासियों पर जबरदस्ती थोपकर लागू करने की कोशिश न करें, लोकतंत्र में सहमति और सर्वस्वीकार्यता का तकाजा रहा है। कृपया इसे दरकिनार न करें।
दुनिया का इतिहास उठाकर देख लीजिये जब भी किसी ने लोकतंत्र को, लोकतांत्रिक अधिकारों को बलपूर्वक कुचलने और दबाने की कोशिश की है। विश्व के किसी न किसी कोने में एक मशहूर क्रांति अवश्य हुई है। फिर चाहे वो 1688 की क्रांति हो, 1786 की क्रांति हो, 1789 की क्रांति हो या 1917 की क्रांति हो।
भूलें नहीं कि 2011 में मिश्र के तहरीर चौक पर भी स्वत:स्फूर्त क्रांति लोकतांत्रिक अधिकारों को दबाने के चलते ही फूट निकली थी। भूलें नहीं कि 2011 में भ्रष्टाचार के खिलाफ इंडिया अंगेस्ट करप्शन के बैनर तले अन्ना हजारे के आंदोलन और अरविंद केजरीवाल के अनशन ने यूपीए-टू की चूलें हिला दी थीँ। भूलें नहीं कि 2011 में शुरु हुए कालेधन के खिलाफ बाबा रामदेव और अन्ना हजारे के आंदोलन को भड़काने में 16 दिसंबर 2012 के निर्भया गैंगरेप ने आग में घी का काम किया था। भूलें नहीं कि 2012 से 2013 तक आपके ही लोग सड़कों पर उतरकर प्याज, महंगाई, पेट्रोल की बढ़ती कीमतें, रुपये के गर्त में गिरने और नौजवानों में बेरोजगारी को लेकर छायी निराशा को हथियार बनाकर सड़कों पर सिलेंडर, कर्छी और बैलगाड़ी लेकर बैठ गए थे। अब इतिहास खुद को दोहरा रहा है।
असम अशांत है, अल्पसंख्यक समुदाय असुरक्षित महूसस कर रहा है, महंगाई सुरसा बन चुकी है, बेरोजगारी भयावह रूप ले चुकी है, उद्योगपति सरेआम सरकार से नाराजगी जता चुके हैं, कारखाने पर तालाबंदी जारी है, लोककल्याणकारी योजनाएं दम तोड़ रही हैं, काला धन, अच्छे दिन और भ्रष्टाचार पर नकेल जुमले बन चुके हैं। उन्नाव, हैदराबाद, छत्तीसगढ़, राजस्थान, मध्यप्रदेश में निर्भया कांड के कई वीभत्स रूप सामने आ चुके हैं, दिल्ली में आपकी बच्चियां, महिलाएं सड़कों पर इंसाफ और हक के लिए आवाज उठा रही हैं, जेएनयू, बीएचयू में पढ़ाई कम और सियासत ज्यादा हो रही है।
संभल जाइये साहब! नीरो बनकर सिर्फ पाकिस्तान, धर्म और राष्ट्रवाद के नाम की दुंदुभी मत बजाइये, कुछ कीजिये, सिर्फ अपना झोला उठाकर चले जाने और पल्ला झाड़ लेने के बाद भी ये देश आपको कभी माफ नहीं करेगा। इतिहास में आपका नाम एक ऐसे फकीर के तौर पर दर्ज हो जाएगा, जिसके झोले में बड़े-बड़े जादुई ख्वाब तो थे, लेकिन इन ख्वाबों को कभी किसी ने हकीकत बनते नहीं देखा।
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