रायपुर,

इसमें कोई शक नहीं कि भारत 130 करोड़ की आबादी के साथ विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है और भारतीय जनता पार्टी सबसे ज्यादा सदस्यों की संख्या वाली विश्व की एकमात्र सबसे बड़ी पार्टी है। इस बात का जिक्र भारतीय जनता पार्टी के वर्तमान अध्यक्ष अमित शाह और भाजपा नेता करते रहे हैं। 23 मई को ही भाजपा 301 सीटें जीतकर दूसरी बार सरकार बनाने जा रही है। लेकिन 25 मई को संसद के सेंट्रल हॉल में नव निर्वाचित भाजपा एवं सहयोगी दलों के सांसदों को संबोधित करते हुए नरेन्द्र मोदी ने कुछ बातें ऐसी कहीं, जो उनके 2014 में पहली बार सरकार बनाने के दौरान कही गईं बातों से एकदम उलट हैं।

मसलन 2014 में जहां प्रधानमंत्री मोदी ने सबका साथ, सबका विकास का नारा देकर खुद को प्रधान सेवक बताकर देश की सेवा करने की इच्छा जताई थी, वो इरादा 2019 में दूसरी बार सरकार बनाने की तैयारी की पहली कड़ी में गायब था। संसद के सेंट्रल हॉल में नरेन्द्र मोदी ने दो चीजों पर खास जोर दिया। जिसमें पहला था सबका साथ, सबका विकास के नारे में सबका विश्वास जोड़ना। ये ठीक वैसा ही है जैसा जय जवान, जय किसान के नारे में जय विज्ञान का जोड़ दिया जाना। जय जवान, जय किसान का नारा भारत-पाक के बीच हुए 1965 की लड़ाई के दौरान लाल बहादुर शास्त्री ने दिया था, बाद में जब देश औद्योगिक क्रांति से आगे बढ़कर सूचना क्रांति के दौर में पहुंच गया, तब अटल बिहारी वाजपेयी ने जय जवान, जय किसान में जय विज्ञान शब्द को जोड़ा। कालांतर में नरेन्द्र मोदी ने जय जवान, जय किसान और जय विज्ञान से आगे बढ़कर इसमें जय अनुसंधान जोड़ दिया।

लेकिन सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास ये नारा 2014 में नरेन्द्र मोदी ने ही ईजाद किया था और मोडिफाइड भी मोदी ने ही किया है। लेकिन इसमें सबका विश्वास शब्द जोड़ने की जरूरत आखिर पड़ी क्यों। सबसे बड़ा सवाल यही है। दरअसल भारत में लोकतंत्र का मतलब चुनाव हो चला है। साल भर कुछ महीनों के अंतराल पर देश के किसी न किसी राज्य में किसी न किसी प्रकार के चुनाव चल रहे होते हैं और हर चुनाव में जीत पाना बड़ी चुनौती है। ये सर्वविदित है कि 2019 में भाजपा और उसके सहयोगी दलों को मिले जनादेश में राष्ट्रवाद, धर्म और आतंकवाद को सबसे ऊपर रखकर जनता ने वोट दिया। लोकसभा चुनाव में वोट देने के दौरान जनता ने अपने राज्य, जिले, नगर के स्थानीय मुद्दों को ध्यान में नहीं रखा। जबकि विधानसभा चुनाव और स्थानीय निकाय के चुनावों में मुद्दे अलग होते हैं जिनके आधार पर जनता वोट करती है। 301 प्लस सीटें जीतकर नरेन्द्र दामोदर दास मोदी दोबारा से देश के प्रधानमंत्री बनने जा रहे हैं। लेकिन उन्हें इस बात की चिंता भी सता रही है कि आने वाले तीन साल तक कई राज्यों में विधानसभा और स्थानीय निकायों के भी चुनाव हैं। ऐसे में क्या आगामी विधानसभा चुनावों  में भी भाजपा का वैसा ही जादू दिखाई देगा, जैसा कि लोकसभा चुनाव के दौरान देखने को मिला है।

जाहिर है नहीं। आइए आपको एक फेहरिस्त दिखाता हूं कि 2019, 2020, 2021 और 2022 में कहां कहां किस किस के चुनाव होने वाले हैं और नरेन्द्र मोदी फिर  से कब-कब चुनाव प्रचार पर निकलने वाले हैं।

वर्ष 2019 में होने वाले चुनाव-

हरियाणा, दिल्ली, झारखंड, महाराष्ट्र, जम्मू-कश्मीर, बिहार

वर्ष 2020 में होने वाले चुनाव-

पांडिचेरी,

वर्ष 2021 में होने वाले चुनाव-

पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, , केरल, असम,

वर्ष 2022 में होने वाले चुनाव-

गोवा, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, मणिपुर, पंजाब, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड

वर्ष 2023 में होने वाले चुनाव-

राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, त्रिपुरा, नागालैंड, मेघालय, कर्नाटक

और उसके बाद फिर 2024  में लोकसभा चुनाव सिर पर आ जाएंगे…..इन सब के बीच हर राज्य में कहीं न कहीं, नगर निगम, पंचायत, एवं निकाय चुनाव चलते रहेंगे,,,जो स्थानीय स्तर पर स्थानीय मुद्दों पर लड़े जाते हैं,,,लेकिन राजनीतिक दल इन चुनावों के लिए भी प्रत्याशियों को पार्टी सिंबल प्रदान करती हैं…यानि यहां भी चुनाव प्रचार और बड़े नेताओं की मौजूदगी मतदाताओं को प्रभावित करती है।

ऐसे में नरेन्द्र मोदी का संसद के सेंट्रल हॉल में खड़े होकर सबके साथ, सबके विकास के साथ सबके विश्वास को जीतने की बात कहना और सांसदों को छपास और दिखास से दूर रहने की नसीहत देना कहीं न कहीं ये दर्शाता है कि प्रधानमंत्री इशारों ही इशारों में ये संदेश देने की कोशिश कर रहे हैं, कि भूलो मत जनता ने सिर्फ मोदी के नाम पर 301 सीटें दिलाई हैं, जबकि अभी राज्यों की लड़ाई बाकी है,,,अगर सांसद अपने -अपने इलाकों में जाकर खुद को मोदी समझने लगे और कुछ ऐसा-वैसा कह गए..तो यही जनता इसी साल के आगामी महीनों में आने वाले विधानसभा चुनाव से लेकर आने वाले 2024 के लोकसभा चुनाव तक बारी-बारी से अपना हिसाब चुकता कर सकती है।  इसलिये थोड़ा संभलें, ठहरें, और फिर आगे बढ़ें।

सबका विश्वास शब्द अपने पुराने नारे में जोड़ने के पीछे एक वजह ये भी हो सकती है कि 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान नरेन्द्र मोदी ने जिस तरह से चुनाव प्रचार किया था,,,उसमें वो जहां भी गए उन्होंने वहां कुछ गिने चुने शब्द हर बार दोहराए,,,मसलन आपके गांव में, मोहल्ले में कब्रिस्तान है तो श्मशान भी होना चाहिए कि नहीं। आपके इलाके में अगर नमाज अदा होती है तो फिर मंदिर में भी जगराता होना चाहिए कि नहीं। ये ऐसे नारे थे,,,जिनके जवाब मोदी ने 2014 में जनता के मुंह से ही निकलवाए। लेकिन 2019 का लोकसभा चुनाव जीतने के बाद और इतना बड़ा बहुमत मिलने के बाद मोदी के लिए मुसलमानों को संभालना और उनके अंदर बैठे मोदी विरोध का बाहर निकालना बेहद जरूरी है। इस बात का जिक्र खुद नरेन्द्र मोदी ने किया भी है कि उन्हें अल्पसंख्यकों के विश्वास को जीतना है, हां इसमें गरीब शब्द को विशेषण के तौर पर जोड़ा है, क्योंकि गरीबी की परिभाषा मोदी पहले ही 8 लाख रुपये सालाना नहीं कमाने वाले परिवार के रूप में एक बड़ी आबादी को पहले ही दे चुके हैं।

 

 

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