नई दिल्ली/कवर्धा/सहारनपुर/फिरोजाबाद, 14 मई,2 019
देश में बुलेट ट्रेन चलाने की तैयारी है, टू जी टेक्नोलॉजी से निकलकर देश 5 जी टेक्नोलॉजी की ओर चल पड़ा है, सरकार ने हर काम डिजिटल और ऑनलाइन से जोड़ दिया है। हर तरफ तरक्की, विकास, साफ-सफाई, शौचालय, नरवा, घरवा, गुरुवा और बाड़ी की बात हो रही है, सुनने में एकदम अच्छा लग रहा है कि मेरा भारत बदल रहा है, लेकिन मैं अगर आपसे ये कहूं कि 17वीं लोकसभा के लिए लोकतंत्र का महापर्व मना रहे भारत में मौजूदा वक्त में भी पीने के पानी का इंतजाम करने के लिए अगर 2 किलोमीटर लंबा पहाड़ लांघकर जाना पड़ रहा है ,तो आपका माथा ठनक सकता है।
पीने के पानी के लिए 2 किलोमीटर पैदल चलकर, पहाड़ लांघकर रोजाना की जा रही जद्दोजहद की ये तस्वीर कहीं दूरदराज की नहीं बल्कि छत्तीसगढ़ प्रदेश के कवर्धा जिले में पड़ने वाले पंडरिया ब्लॉक के गांव बसूलालूट की है। जिस जिले में ये गांव पड़ता है, उसी जिले से छत्तीसगढ़ के 15 साल तक मुख्यमंत्री रहे ड़ॉ रमन सिंह आते हैं। लेकिन बसूलालूट में रहने वाले 90 परिवारों के लिए न जीवन 15 साल पहले आसान था न 2019 में ही आसान है। 34 साल की रा्मबाई को नहाने और पीने के पानी के लिए विशालकाय पहाड़ को पारकर दो किलोमीटर पैदल चलकर एक गुंडी पानी की व्यवस्था करनी पड़ती है। लेकिन रामबाई की ये मुश्किल तब चौगुनी हो जाती है जब माहवारी के दिनों में भी उसे इसी तरह पानी लेने के लिए पहाड़ लांघकर जाना पड़ता है। माहवारी के वो चार -पांच दिन रामबाई के लिए कैसे गुजरते हैं इसे वो ही समझ सकती है, हम और आप तो सिर्फ उस तकलीफ को महसूस ही कर सकते हैं क्योंकि उन दिनों के लिए वो जो कपड़ा इस्तेमाल करती है उसे धोना भी उसके लिए बड़ी चुनौती है।
महिलाओं के विकास और उनके सशक्तीकरण की बातें सरकार और राजनेताओं के मुंह से आप खूब सुनते और टीवी चैनलों पर चलते हुए देखते होंगे, लेकिन इस पूरी रिपोर्ट को पढ़कर महिला सशक्तीकरण के दावों को लेकर चीजों को देखने का आपका नजरिया बदल जाएगा।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश का जिला सहारनपुर अपनी खेती बाड़ी के लिए प्रसिद्ध है लेकिन यहां महिला सशक्तीकरण और महिला उत्थान का आलम ये है कि सहारनपुर की रहने वाली शालू माहवारी के दिनों में खुद को शारीरिक ही नहीं बल्कि मानसिक रूप से भी बीमार पाती है। महीने को वो दिन आने पर शालू सिहर जाती है कि उन दिनों वो क्या इस्तेमाल करेगी क्योंकि उसके पास तो सूती कपड़ा भी नहीं है। शालू बताती है कि महीने के उन दिनों में वो कई बार कुशन, पिलो कवर और बेड शीट भी खराब कर चुकी हैं। हताशा में शालू ने गुस्से में आकर एक बार दो दिनों तक खाना ही नहीं खाया और ईश्वर से प्रार्थना करने लगी कि हर महीने होने वाली उसकी ये दिक्कत बंद क्यों नहीं हो जाती है।
उत्तर प्रदेश का ही एक और जिला फिरोजाबाद जहां के एक गांव में टिटनेस से पीड़ित एक महिला की मौत इसलिये हो गई क्एयोंकि माहवारी के दिनों में उसने अपने फटे हुए ब्लाउज का इस्तेमाल किया था। ब्लाउज में जंग लगे हुक से महिला को टिटनेस हो गई और धीरे-धीरे उसकी मौत हो गई।
महीने के उन दिनों की ये समस्या सिर्फ रामबाई, शालू या किसी एक महिला की नहीं है बल्कि उन हजारों लाखों महिलाओं की समस्या है, जो आधुनिक डिजिटल भारत में भी एक अदद सैनेटरी नैपकिन हासिल करने की सामर्थ्य नहीं पा पाई हैं। फिर कैसा महिला सशक्तीकरण और कैसा महिला उत्थान और फिर कैसा विकास और कैसे बदल रहा है भारत।
आप सोच रहे होंगे कि महिलाओं की हाईजीन की स्थिति को लेकर ये आंकड़े आए कहां से हैं, तो मैं साफ कर देना चाहता हूं कि ये आंकड़े सेनेटरी नैपकिन पैड पर करीब दो दशकों से काम कर रही सामाजिक संस्था ‘गूंज’ के द्वारा webreporter.co.in को उपलब्ध कराए गए हैं।
‘गूंज’ के संस्थापक और रमन मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित अंशु गुप्ता ने बताया कि ओडिशा के दारिंगबाड़ी इलाके के सुगापाड़ा गांव में पहुंची उनकी टीम ने कोइ जनजाति की महिलाओं से हाईजीन को लेकर बातचीत की तो पता चला कि वो महिलाएं साल भर में केवल एक बार ही कपड़ा खरीद पाती हैं और पूरे साल उसी को इस्तेमाल करती हैं।
हमें ये जानकर और हैरानी हुई कि उन दिनों के लिए कपड़ा खरीदने के लिए महिलाएं स्थानीय साहकार से कर्ज लेती हैं। कोइ जनजाति की महिलाओं के इस बयान ने उन तमाम सरकारी योजनाओं और दावों को एक झटके में ध्वस्त कर दिया, जिनके दम पर सरकारें और राजनीतिक दल चुनाव लड़ती रहे हैं।
माहवारी, हाईजीन और महिला सशक्तिकरण को लेकर ऐसे ढेंरों सवाल हैं, जिनके उत्तर अभी तक नहीं मिले हैं। क्या हम मासिक धर्म के ट्रिपल ‘ए’ यानि (access, affordability and awareness) को लोगों तक पहुंचाकर, सेनेटरी नैपकिन पैड को और सस्ता करके शर्म और शर्मिंदगी की परतों को उधेड़कर महिलाओं को माहवारी के प्रति जागरूक बना सकते हैं।
इन्हीं तमाम सवालों का जवाब जानने के लिए दिल्ली के इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मास कम्यूनिकेशन (IIMC) में 21 मई को स्वयंसेवी संस्था ‘गूंज’ की ओर से एक परिचर्चा का आयोजन किया जा रहा है। जिसमें ख्यातनाम लोग महिलाओं की माहवारी से जुड़ी समस्या और नैपकिन पैड की अनुपलब्धता पर अपने विचार प्रकट करेंगे।
दिल्ली की जानी मानी प्रसूति रोग एवं प्रजनन विशेषज्ञ डॉ. शिवानी से बताया कि महाराष्ट्र के बीड़ में चल रहे शुगर फार्म्स में आज भी ऐसी महिलाएं काम नहीं कर पाती हैं जो माहवारी के दिनो में होती हैं। यानि माहवारी महिलाओं से उनकी रोजी भी छीन लेती है। डॉ. शिवानी के अनुसार ग्रामीण भारत में अगर फ्री में सैनिटरी पैड की पहुंच हो तो महिलाएं उन दिनो में परेशान नहीं होंगी और इसके लिए जमीनी स्तर पर भारत में बहुत काम करना बाकी है।
जैसा कि ‘गूंज’ के रविकांत िद्वेदी ने हमें बताया।