संपादकीय, 23 जनवरी 2020

   26 जनवरी 2020 को भारत के संवैधानिक लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनने के 71वर्ष पूर्ण होने का जश्न बड़ी जोर-शोर से मनाया जाएगा। इसके लिए नई दिल्ली में राष्ट्रपति भवन से इंडिया गेट तक का डेढ़ किलोमीटर लंबा राजपथ सज-धजकर तैयार है। राजपथ पर होने वाली परेड, सलामी, झांकियों की रिहर्सल जारी है। लेकिन क्या भारतीय संविधान के लागू होने के 71 वर्ष पूर्ण होने की खुशी में आयोजित होने वाला ये समारोह इस बार उतनी खुशी दे पाएगा, जितनी खुशी देने का हकदार ये अवसर होता है? यकीनन कई लोगों के पास इसका जवाब नहीं में होगा। कुछ पक्ष में तो कुछ विपक्ष में जवाब जरूर आ सकते हैं। लेकिन इस सवाल का जवाब जानने से ज्यादा ये जवाब जानना जरूरी हो जाता है कि 71वें गणतंत्र दिवस के अवसर पर दिल्ली के राजपथ पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी क्या सबका साथ, सबका विकास और सबके विश्वास का नारा फिर से दोहराएंगे या नहीं।

गणतंत्र दिवस की परेड और दिये जाने वाले भाषण से देश के नेतृत्व की साख जुड़ी होती है। लेकिन भारत और भारतीयों के लिए ये अवसर इसलिये भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि 22 जनवरी को जारी हुए इकॉनोमिस्ट डेमोक्रेसी इंडेक्स 2019 में भारत को संपूर्ण लोकतंत्रात्मक देशों की श्रेणी में न रखकर दोषपूर्ण लोकतंत्रात्मक देशों की सूची में 51वें स्थान पर रखा गया है। 9 जून 2019 को मालदीव की संसद को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने एक नया नारा दिया था। ये नारा था, सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास। लेकिन देश के अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग शहरों में 9 दिसंबर 2019 से अब तक लगातारी जारी धरना, विरोध-प्रदर्शन ये बताने के लिए काफी हैं कि देश की केन्द्रीय सरकार सबका साथ और सबका विश्वास हासिल करने में नाकामयाब रही है। सबके विकास की बातें करना यहां बेमानी होगा। विकास और धड़ाम होती अर्थव्यवस्था की असल तस्वीरें अलग-अलग आंकड़ों और सर्वेक्षणों से देश की जनता के सामने आ चुकी हैं। देश में आर्थिक, आधारभूत और अधोसंरचनागत विकास की गाड़ी औंधे मुंह पड़ी हुई है। ना नया निवेश है। ना नया रोजगार है। ना नया उद्योग खुले हैं। ना नये बैंक खुले हैं। जो थे उनमें से भी तमाम बंद हो चुके हैं, हो रहे हैं, दिवालिया होने की कगार पर खड़े हैं।

9 दिसंबर से लेकर 23 जनवरी तक का दिन बहुत लंबा होता है। एक महीने से भी ज्यादा समय से जारी विरोध, धरना और प्रदर्शनों का सिलसिला केन्द्र सरकार को कठघरे में खड़ा करता है। जब देश आर्थिक मोर्चे पर संकट का सामना कर रहा हो, पड़ोसी देश पाकिस्तान और चीन से हरपल युद्ध का खतरा हो। विदेशी घुसपैठ को रोकने की चिंता हो, ऐसे माहौल में देश के भीतर अलग-अलग राज्यों में बने गृहयुद्ध जैसे हालात 20वीं सदी के लोकतांत्रिक भारत के लिए कहीं से भी उचित नहीं कहे जा सकते हैं। दुनिया की सबसे बड़ी ऑनलाइन बिक्री का कारोबार करने वाली कंपनी का मालिक 21वीं सदी को भारत की मानता है। लेकिन केन्द्रीय सरकार के मुखिया के पास उससे मिलने का ही वक्त नहीं होता है। विदेशी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की सीमा में रहकर भारत में आकर निवेश करके यहां की बेरोजगारी दर को घटाने की कोशिश करना चाहती हैं। लेकिन केन्द्रीय सरकार में शामिल जनप्रतिनिधि और जिम्मेदार देश की आर्थिक तरक्की का पैमाना जीडीपी के आंकड़ों से नहीं बल्कि सिनेमाघरों में फिल्म देखने उमड़ी भीड़, रेलवे स्टेशन, बस स्टैंड़ या टूरिस्ट के तौर पर निकले पर्यटकों की संख्या के हिसाब से आर्थिक विकास को देखते हैं। किसी भी देश की आर्थिक तरक्की के विकास का ये पैमाना दुनिया के किसी भी आर्थिक विशेषज्ञ के लिए चौंकाने वाला हो सकता है।

20 नवंबर 2019 को देश के गृहमंत्री अमित शाह ने संसद में बताया कि उनकी सरकार दो अलग-अलग- नागरिकता संबंधी पहलुओं को लागू करने जा रही है। जिनमें से एक होगा सीएए यानि सिटीजनशिप अमेंडमेंट एक्ट और दूसरा होगा एनआरसी यानि नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजनशिप। 10 दिसंबर 2019 को सरकार ने सिटीजनशिप अमेंडमेंट बिल लोकसभा में पेश कर दिया। लेकिन चर्चा हुए बिना ही सरकार ने इसे बहुमत के आधार पर इसे पहले लोकसभा और फिर वोटिंग के आधार पर राज्यसभा से पास करा लिया। राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बाद ये नागरिकता संशोधन अधिनियम 2019 कानून बन गया। दिल्ली के मजनूं का टीला पर पाकिस्तान से आकर सालों से बिना नागरिकता के रह रहे लोगों ने मिठाई बांटी, यहां तक कि उसी समय जन्मी एक बच्ची का नाम नागरिकता भी रख दिया। लेकिन उसके बाद देश के कई राज्य, कई विश्वविद्यालय, पूर्वोत्तर का लगभग हर राज्य सीएए, एनआरसी और एनपीआर के विरोध में सड़कों पर उतर आया। गृहमंत्री अमित शाह किसी सूरत में एक इंच भी पीछे हटने से इंकार कर चुके हैं, लेकिन विरोध प्रदर्शनों का सिलसिला जारी है। इऩ्हीं विरोध प्रदर्शनों के बीच देश अपने संवैधानिक लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनने के 71 वर्ष पूरे होने का जश्न मनाएगा। ऐसा विरोधाभासी नजारा अब तक सीरिया, ताईवान, हॉगकॉंग, मिस्र, चिली और अज़रबेजान जैसे देशों में ही देखने को मिला करता था, लेकिन अब ये भारत में भी देखने को मिल रहा है। इससे पहले देश में विरोध प्रदर्शनों का ऐसा व्यापक नजारा 2010 से 2013 तक देखने को मिला था, जब यूपीए टू सरकार के भ्रष्टाचार, महंगाईं, कालेधन के खिलाफ बाबा रामदेव के अभियान और इंडिया अंगेस्ट करप्शन के आंदोलन, लोकपाल बिल की मांग के साथ दिसंबर 2012 के निर्भया गैंगरेप कांड ने इसे कई साल तक सुलगाए रखा था। लेकिन उस वक्त के आंदोलन और इस बार के आंदोलन में फर्क सिर्फ इतना है कि अब न महंगाई की बात हो रही है, न भ्रष्टाचार, कालेधन और लोकपाल की बात हो रही है। न महिला सुरक्षा की बात ह रही है न ही निर्भया के गुनहगारों को फांसी पर जल्द लटकाने की बात हो रही है। बात हो रही है तो सिर्फ मेरा भारत और तेरा भारत की हो रही है। इसमें सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास जैसे भावों का लोप दिखाई दे रहा है। अगर यही सबका विश्वास है तो सीएए, एनआरसी और एनपीआर को लेकर सबसे ज्यादा भ्रम अगर किसी ने फैलाया है तो वो केन्द्रीय सत्ता पर काबिज दल के लोगों ने ही फैलाया है। विपक्ष के अपने राजनीतिक हित होना कोई नहीं बात नहीं है, लेकिन जब किये जाने वाले किसी बड़े बदलाव को लेकर सरकार ही सबका विश्वास हासिल न कर पाये तो नीति और नीयत पर सवाल उठना स्वाभाविक है।

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