दिल्ली,
राजधानी दिल्ली से करीब 200 किलोमीटर की दूरी पर उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद जिले का पालनपुर गांव शायद दुनिया का एकमात्र ऐसा गांव हैं, जिस पर अब तक ढेरों शोध हो चुके हैं। पालनपुर गांव को लेकर शोध होने का ये सिलसिला 1950 में शुरु हुआ था और आज तक बदस्तूर जारी है। पालनपुर पर दिल्ली यूनिवर्सिटी के एग्रीकल्चर इकॉनमिक्स रिसर्च सेंटर ने 1950 के दशक में स्टडी की थी। इसलिए यहां से मिले आंकड़े अच्छे थे।’ आखिर ऐसा क्या है इस गांव में और क्यों शोधकर्ता अपने रिसर्च के लिए इस गांव को चुन रहे हैं, इसकी वजह खोजने के लिए जब वेबरिपोर्टर की टीम ने इंटरनेट को खंगाला तो सामने आया कि देश में हरित क्रांति के बाद इस गांव में आश्चर्यजनक बदलाव आया था। तब से ही रिसर्चरों के लिए ये गांव पहली पसंद बन गया।
पालनपुर गांव के प्रधान कहते हैं, ‘अधिकांश बच्चे अपने परिवार का हाथ बंटाने के लिए पढ़ाई छोड़ देते हैं। जो आगे पढ़ना चाहते हैं वे साइकल से या 3 किलोमीटर पैदल चलकर अकरौली के सरकारी सेकंडरी स्कूल में पढ़ते हैं या पास के गांव अमरपुरकाशी में प्राइवेट सेकंडरी स्कूल में जाते हैं।
पालनपुर की कच्ची पगडंडियों से गुजरते समय आपको कतई ऐसा अहसास नहीं होगा कि आप किसी अन्य गांव में हैं, बल्कि सबकुछ वैसा ही देखने को मिलेगा जैसा कि भारत के किसी भी गांव में देखने को मिलता है। गांव में गरीबी है इस बात का आभास आपको गांव में घुसते ही हो जाएगा। लेकिन गांव के ज्यादातर घरों में शौचालय देखकर आप चौंक जाएंगे। यहां की जमीन, ग्रामीण मजदूरी, जाति व्यवस्था, कर्ज वगैरह पर ढेरों किताबें लिखी गई हैं। 1982 में अर्थशास्त्री सीजे ब्लिस और निकोलस स्टर्न की हरित क्रांति, मजदूरी और मालगुजारी पर लिखी एक किताब रिलीज हुई थी। 1998 में पीटर लंजौव और स्टर्न ने एक और किताब लिखी जो ग्रामीण आय पर आधारित है। 2018 में मार्केट में आई तीसरी किताब में हिमांशु, लंजौव और स्टर्न ने सात दशकों के आंकड़ों के आधार पर पालनपुर कीअर्थव्यवस्था और समाज में हुए विकास का खाका खींचा है। इसके अलावा बड़ी बात यह थी कि यह जगह दिल्ली के काफी नजदीक थी और यहां रहकर आराम से रिसर्च की जा सकती थी। इसके बावजूद यहां बच्चों की पढ़ाई छोड़ने की दर काफी ज्यादा रही। यहां दो सरकारी स्कूल हैं। अपर प्राइमरी स्कूल में एक ही शिक्षक है जबकि बच्चे 56 हैं।