संपादकीय, 10 जनवरी 2020
शौर्य, तेज, तप त्याग, बलिदान, विज्ञान, अध्यात्म ये भारत और भारतीय संस्कृति के मूल तत्व रहे हैं। लेकिन इतना सब होने के बाद भी भारत पर मुगल, अफगान, तुर्क, उज्बेक, मंगोल, हब्शी, पुर्तगाल, डच, फ्रांसीसी, अंग्रेजों ने दशकों तक शासन किया। भारतीयों को गुलाम और दास बनाकर रखा। छोटे-छोटे विदेशी देशों के लोग लुटेरों की शक्ल में अलग-अलग झुंड बनाकर भारत आते रहे और अलग- अलग हिस्सों पर कब्जा कर भारतीयों को गुलाम बनाते रहे। लेकिन ऐसा संभव कैसे हो पाया। इस बात पर कितने लोगों ने गौर किया है ये सोचनीय है।
भारत पर इतने विदेशियों के कब्जे होने का कारण सिर्फ और सिर्फ एक ही था कि तब भारत में भारतीय होने का जज्बा नहीें था, अलग-अलग राज्य, कबीले, क्षेत्रों में बंटे राजा, महाराजा उस वक्त सिर्फ और सिर्फ अपने राज्य और इलाके पर ही ध्यान देते थे, पड़ौसी राजा के यहां क्या हो रहा है, उससे उनको कोई मतलब नहीं था, अंग्रेजों के आने से पूर्व भारत एक बड़ा भूखंड जरूर था लेकिन भारतीयता की भावना नहीं थी। 565 रियासतों में बंटा भारत 565 तरीके के विचार और नीतियां रखता था, इसी का फायदा मुगलों से लेकर अंग्रेजों तक आए विदेशियों ने उठाया। जब तक लूटना था लूटा और रियासतों में बंटे भारतीयों ने कभी भी एक दूसरे को मदद देने और भारतीयता की भावना के साथ विदेशी आक्रमणकारियों का मुकाबला करने का जोखिम नहीं उठाया।
भारत के मौजूदा हालात में भारतीयता की भावना पुष्ट हुई है। राजे-रजवाड़े, रियासतों का दौर गुजर चुका है। लेकिन मौजूदा स्थिति ये है कि युवा पीढ़ी न तो भारतीय संस्कृति का सम्मान कर रही है और न ही अपनी गौरवपूर्ण सांस्कृतिक विरासत को सहेजने की कोशिश कर रही है। अगर हम अपने बड़े-बुजुर्गों का अपनी संस्कृति का सम्मान नहीं करेंगे तो अपनी आने वाली पीढ़ी में संस्कारों का बीज कहां से रोपेंगे।
अंग्रेज, मुगल, अफगान, डच, पुर्तगालियों की गुलामी खत्म हुई, ये सब लौट गए, लेकिन इतने वर्षों की गुलामी झेलने के बाद भी क्या भारत मानसिक गुलामी से उबर पाया है। मेरा सवाल है कितने भारतीयों को धोती बांधना आता है। कितने भारतीय धोती-कुर्ता लगातार पहनते हैं, जो दिख रहा है, जो अपनाया जा रहा है वो पश्चिमी है, उसे ही आज की पीढ़ी आदर्श मान रही है।
मां को अम्मा नहीं मॉम कहने में गर्व करती है आज की पीढ़ी, पिता को बाबूजी नहीं बल्कि डैड कहकर खुश होती है। लेकिन इसका समाधान क्या है, भारतीय संस्कृति की पुरातन विरासत को कैसे स्थापित किया जाए। इसे लेकर कितनी सरकारें, कितने संस्थान काम कर रही हैं, कभी सोचा है इस पर। आज आदमी अपने लाभ-हानि, धन कमाने की होड़ में इतना व्यस्त है कि उसका ध्यान इस ओर जा ही नहीं रहा है।
लेकिन हकीकत ये है कि अब घरों में धर्म चर्चा, इतिहास की चर्चा, अपने बलिदानियों की चर्चा, परियों की राजाओं की कथाएं नहीं सुनाई जाती हैँ। अब तो सुबह उठने से लेकर रात को सोने तक गुड मॉर्निंग और गुड नाइट तक मोबाइल, वॉट्सएप पर कहा जा रहा है। गुड मॉर्निंग का फूल भी वॉट्सएप पर आ रहा है, जन्मदिन की शुभकामना भी मोबाइल पर भी चित्र के साथ भेजी जा रही हैं। लेकिन इससे मानसिक दिवालियापन, संबंधों में संवाद की शून्यता की खाई बढ़ती जा रही है।
कहीं भी देख लीजिये जहां चार लोग एक जगह बैठे हैं, भले ही वो किसी एक उद्देश्य को लेकर ही जमा हुए हों, लेकिन आपस में बात नहीं करते हैं, बल्कि अपने-अपने मोबाइल में डूबे रहते हैँ। ये संवाद की शून्यता और मानसिक दिवालियेपन का उदाहरण है।
फिर पुरातन संस्कृति को बचाने के लिए क्या किया जाना चाहिए। मेरा मानना है कि चित्र बदल दीजिये चरित्र अपने आप बदल जाता है।
आज समाज में हम जो देख रहे हैं वो सब पश्चिमी, भौतिकतावादी, स्वार्थसिद्धिकारक औऱ क्षणिक सुखदायक है। लेकिन अगर हम इसी दिखावटी चित्र को बदल दें, अपनी संस्कृति से जुड़ी बातों को, उससे जुड़ी यादों को, उससे जुड़े चित्रों को दिखाना शुरु कर दें तो कोई ताकत नहीं कि भारत की पुरातन संस्कृति को वापस बहाल होने से रोक सके।
मोबाइल एक संवाद का साधन है, उससे संवाद ही किया जाना चाहिए। लेकिन जब ये मोबाइल संवाद में शून्यता लाना शुरु कर दे, मनुष्य को एकाकी बनाना शुरु कर दे तो गंभीर चिंतन की आवश्यकता है। आभासी दुनिया में जीना एक फैंटेसी भर है। लेकिन जैसे ही आज का युवा इस फैंटेसी के भ्रम से साक्षात्कार करता है, उसका हौसला जवाब दे चुका होता है।
आज देश के शिक्षकों की, गुरुओं की शिक्षण संस्थानों को इस दिशा में पहल करनी चाहिये कि भारत के युवाओं को भारत की पुरातन संस्कृति, ऐतिहासिक विरासत और समृद्ध सांस्कृतिक भाषा से रूबरू कराएं। अंग्रेजी और अंग्रेजियत को अपनाने की होड़ में आज का युवा क्लिष्ट, परिष्कृत और परिमार्जित हिंदी भी नहीं बोल पा रहा है। यहां तक कि आज के समाचार पत्र खुद हिंदी से किनारा कर हिंग्लिश हो गए हैँ। भारत की संस्कृति को बचाने का जिम्मा, समाज, मीडिया, शिक्षक के साथ-साथ हम पर और आप पर भी है। शुरुआत अपने घर से ही करनी होगी और अगर ऐसा नहीं किया तो भारत को वापस गुलाम होने में ज्यादा वक्त नहीं लगेगा, क्योंकि आज भी लोगों को पड़ौसी के घर में खटकने वाले बर्तनों से कोई लेना-देना नहीं होता है। जब अपने घर में आग लगती है तब ही लोग बुझाने दौड़ते हैं। वक्त है संभलिये अपने आस-पास के चित्रों को बदल दीजिये ताकि भावी पीढ़ी को सही चरित्र दे सकेँ।