रायपुर, 12 मई 2020

वैश्विक महामारी कोविड-19 के खतरनाक संक्रमणकाल में नर्स की भूमिका बेहद  खास है। खुद की जान जोखिम में डालकर कोरोना वायरस पॉजीटिव मरीजों के इलाज और देखभाल में दिन-रात जुटी नर्सों को अंतरराष्ट्रीय नर्स दिवस पर सलाम है। कोविड-19 महामारी ने नर्सों को अपने परिवार, पति, बच्चों से दूर कर दिया है। हफ्ते, महीनों तक नर्स अपने घर नहीं गईं, अपने छोटे बच्चों को नहीं देख पाई, उन्हें लाड़-प्यार नहीं कर पाई। वैश्विक बीमारी के संक्रमणकाल में नर्सों को याद है तो सिर्फ अपना फर्ज। कोरोना संकटकाल में नर्सें कोरोना योद्धा की भूमिका में हैं। किसी मरीज को ठीक करने में जितना योगदान डॉक्टर का होता है, उससे कहीं ज्यादा योगदान एक नर्स का होता है। नर्स न सिर्फ मरीज की तीमारदारी करती है बल्कि उसे मानसिक सांत्वना भी पहुंचाती है। मरीज के साथ अपनापन दिखाकर, उसे अपने हाथों से खाना खिलाकर कई मरीजो का मर्ज तो नर्सों के प्रेमपूर्ण व्यवहार से ही ठीक हो जाता है।

12 मई लेडी विद द लैंप कही जाने वाली फ्लोरेंस नाईटेंगल का जन्मदिवस है। फ्लोरेंस नाईटेंगल की जयंती को ही अंतरराष्ट्रीय नर्स दिवस के रूप में मनाया जाता है। फ्लोरेंस नाईटेंगल दुनिया की पहली नर्स थी। क्रीमियन युद्ध के दौरान फ्लोरेंस नाईटेंगल ने घायल सैनिकों की बहुत सेवा की थी, खुन से लथपथ और अंगभंग पड़े सैनिकों की देखभाल में फ्लोरेंस नाईटेंगल ने दिन रात एक कर दिया था। युद्ध के मैदान में जब चारों तरफ तबाही और बर्बादी का मंजर था। तब फ्लोरेंस नाईटेंगल ने लालटेन की रोशनी में मरीजों की मरहम पट्टी की उन्हें दवाईयां दीं। फ्लोरेंस नाईटेंगल की मरीजों के प्रति इसी सेवा सुश्रुषा के चलते उन्हें लेडी विद द लैंप के नाम से पहचाना गया।

राष्ट्रीय फ्लोरेंस नाईटेंगल पुरस्कार

अंतरराष्ट्रीय नर्स दिवस पर भारत सरकार की ओर से राष्ट्रीय फ्लोरेंस नाइटेंगल पुरस्कार प्रदान किया जाता है। नर्सों की सराहनीय सेवा को मान्‍यता प्रदान करने के लिए  परिवार एवं कल्‍याण मंत्रालय ने राष्‍ट्रीय फ्लोरेंस नाइटिंगल पुरस्‍कार की शुरुआत की थी। पुरस्‍कार प्रत्‍येक वर्ष 12 को दिये जाते हैं।  स्‍वास्‍थ्‍य एवं परिवार कल्‍याण मंत्रालय ने 1973  से  अभी तक कुल 237 नर्सों को इस पुरस्कार से सम्मानित किया है। यह पुरस्‍कार प्रति वर्ष माननीय राष्ट्रपति  द्वारा प्रदान किये जाते हैं। फ्लोरेंस नाइटिंगल पुरस्‍कार में 50 हज़ार रुपए नकद, एक प्रशस्ति पत्र और मेडल दिया जाता है

अंतरराष्ट्रीय नर्स दिवस का इतिहास:

‘नर्स दिवस’ को मनाने का प्रस्ताव पहली बार अमेरिका के स्वास्थ्य, शिक्षा और कल्याण विभाग के अधिकारी ‘डोरोथी सदरलैंड’ ने प्रस्तावित किया था। अंतत अमेरिकी राष्ट्रपति डी.डी. आइजनहावर ने इसे मनाने की मान्यता प्रदान की। इस दिवस को पहली बार वर्ष 1953 में मनाया गया। अंतरराष्ट्रीय नर्स परिषद ने इस दिवस को पहली बार वर्ष 1965 में मनाया। नर्सिंग पेशेवर की शुरूआत करने वाली प्रख्यात ‘फ्लोरेंस नाइटइंगेल’ के जन्म दिवस 12 मई को अंतरराष्ट्रीय नर्स दिवस के रूप में मनाने का निर्णय वर्ष 1974 में लिया गया। आधुनिक नर्सिंग की संस्‍थापक फ्लोरेंस नाइटिंगल का जन्‍म  12 मई 1820 को हुआ था।  इंटरनेशनल काउंसिल ऑफ नर्सेज, नर्सोंं के लिए नए विषय की शैक्षिक और सार्वजनिक सूचना की जानकारी की सामग्री का निर्माण और वितरण करके इस दिन को याद करता है।

अंतरराष्ट्रीय नर्स दिवस का महत्व:

नर्सिंग को विश्व के सबसे बड़े स्वास्थ्य पेशे के रूप में माना जाता है। नर्सिस को शारीरिक, मानसिक और सामाजिक स्तर जैसे सभी पहलुओं के माध्यम से रोगी की देखभाल करने के लिए अच्छी तरह से प्रशिक्षित, शिक्षित और अनुभवी होना चाहिए। जब पेशेवर चिकित्सक दूसरे रोगियों को देखने में व्यस्त होते है, तब रोगियों की चौबीस घंटे देखभाल करने के लिए नर्सिस की सुलभता और उपलब्धता होती हैं। नर्सिस से रोगियों के मनोबल को बढ़ाने वाली और उनकी बीमारी को नियंत्रित करने में मित्रवत, सहायक और स्नेहशील होने की उम्मीद की जाती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया भर में अमीर और ग़रीब दोनों प्रकार के देशों में नर्सोंं की कमी चल रही है। विकसित देश अपने यहाँ नर्सोंं की कमी को अन्य देशों से नर्सोंं को बुलाकर पूरा कर लेते हैं और उनको वहाँ पर अच्छा वेतन और सुविधाएँ देते हैं, जिनके कारण वे विकसित देशों में जाने में देरी नहीं करती हैं। दूसरी ओर विकासशील देशों में नर्सोंं को अधिक वेतन और सुविधाओं की कमी रहती है और आगे का भविष्य भी अधिक उज्ज्वल नहीं दिखाई देता, जिसके कारण वे विकसित देशों के बुलावे पर नौकरी के लिए चली जाती हैं। दुनिया में अधिकांश देशों में आज भी प्रशिक्षित नर्सों की भारी कमी चल रही है, लेकिन विकासशील देशों में यह कमी और भी अधिक देखने को मिलती है।  भारत में विदेशों के लिए नर्सों के पलायन में पहले की अपेक्षा कमी आई है, लेकिन रोगी और नर्स के अनुपात में अभी भी भारी अंतर है। ट्रेंड नर्सेस एसोसिएशन ऑफ़ इंडिया की महासचिव के अनुसार सरकार द्वारा उठाए गए कदमों के कारण भारत में प्रशिक्षित नर्सों की संख्या में कुछ सुधार हुआ है। अच्छे वेतन और सुविधाओं के लिए पहले जितनी अधिक संख्या में प्रशिक्षित नर्सें विदेश जाती थीं, आज उनकी संख्या में कमी आई है। रोगियों की संख्या में लगातार वृद्धि होने के कारण रोगी और नर्स के अनुपात में अंतर बढ़ा है, जिस पर सरकार को गंभीरता से ध्यान देना चाहिए। सरकारी अस्पतालों में नर्सों को छठे वेतन आयोग की सिफारिशों के आधार पर वेतन और अन्य सुविधाएँ मिल रही हैं। उनकी हालत में भारी सुधार आया है, जिससे नर्सों का पलायन काफ़ी रुका है, लेकिन कुछ राज्यों और गैर सरकारी क्षेत्रों में आज भी नर्सों की हालत अच्छी नहीं है। उन्हें लंबे समय तक कार्य करना पडता है और उनको वे सुविधाएँ नहीं दी जाती हैं, जिनकी वे हकदार हैं। केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के अनुसार सरकारी चिकित्सा महाविद्यालयों और अस्पतालों में नर्सों की कमी को ध्यान में रखते हुए विवाहित महिलाओं को भी नर्सिंग पाठयक्रम में प्रवेश लेने की अनुमति दी गई है।

भारत में छह लाख डॉक्टरों और 20 लाख नर्सों की कमी

भारत में अनुमानित तौर पर छह लाख डॉक्टरों और 20 लाख नर्सों की कमी है। वैज्ञानिकों ने पाया है कि भारत में एंटीबायोटिक दवाइयां देने के लिए उचित तरीके से प्रशिक्षित स्टाफ की कमी है, जिससे जीवन बचाने वाली दवाइयां मरीजों को नहीं मिल पाती हैं।

अमेरिका के ‘सेंटर फॉर डिज़ीज़ डाइनामिक्स, इकॉनॉमिक्स एंड पॉलिसी’ (सीडीडीईपी) की रिपोर्ट के मुताबिक, एंटीबायोटिक उपलब्ध होने पर भी भारत में लोगों को बीमारी पर 65 फीसदी खर्च खुद उठाना पड़ता है। यह हर साल 5.7 करोड़ लोगों को गरीबी के गर्त में धकेलता है। रिपोर्ट के मुताबिक, दुनियाभर में हर साल 57 लाख ऐसे लोगों की मौत होती है, जिन्हें एंटीबायोटिक दवाइयों से बचाया जा सकता था। ये मौतें कम और मध्यम आय वाले देशों में होती हैं। ये मौतें एंटीबायोटिक प्रतिरोधी संक्रमणों से हर साल होने वाली अनुमानित सात लाख मौतों की तुलना में अधिक हैं।

 

 

 

 

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