विशेष आलेख

डॉ. सत्यपाल सिंह मीना,

एडीशनल डायरेक्टर ऑफ इनकम टैक्स इंदौर 

सदस्य सोच बदलो गाँव बदलो टीम (SBGBT)

 

मानव जाति अपने इतिहास के सबसे कठिन और अभूतपूर्व दौर से गुजर रही है। शायद यह पहला अवसर है; जब पृथ्वी पर सबसे विकसित समझे जाने वाली मानव जाति अपने आप को घरों में कैद करने के लिए मजबूर हैं। मानव जाति स्वीकार करने को मजबूर है कि देश, राष्ट, भाषा, संस्कृति, धर्म, व्यवसाय, गरीब और अमीर की सीमाएं मानव निर्मित हैं; अन्यथा प्रकृति के समक्ष हम सभी समान और अंतर्निर्भर हैं। व्यक्तिगत स्वास्थ्य सामाजिक स्वास्थ्य से गहरे रूप से संबंधित है। स्वास्थ्य एक व्यक्तिगत विशेषाधिकार ना होकर सामाजिक आवश्यकता है जिससे हमारा जीवन, परिवार, समाज और देश सीधे रूप से प्रभावित होता है। स्वास्थ्य देश की समृद्धि और विकास को निर्धारित करने में सबसे महत्वपूर्ण कारक होता है।

 

30 जनवरी भारत के केरल राज्य में कोविड-19 पहला केस का दर्ज होना, 11 मार्च को विश्‍व स्‍वास्‍थ्‍य संगठन के महानिदेशक डॉ. टेड्रोस अदनोम घेब्रेयसस द्वारा कोविड-19 वैश्‍विक महामारी घोषित करना, 22 मार्च को जनता कर्फ्यू, उसके बाद 21 दिन का लॉकडाउन और इसके उपरांत भी कोविड-19 के मरीजों की संख्या में निरंतर प्रगति हमें स्वास्थ सेवाओं और विशेष रूप से सार्वजनिक क्षेत्र की स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति और उनकी आवश्यकताओं पर सोचने को मजबूर करती है। वैश्विक और राष्ट्रीय विपदाएँ राष्ट्रीय नेतृत्व को देश की व्यवस्थाओं को लाभकारी दृष्टिकोण की बजाय समाजवादी दृष्टिकोण से देखने को प्रेरित करती हैं क्योंकि इन परिस्थितियों में लोगों का स्वास्थ्य और उनकी सलामती सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाती है। यह विपदाएँ देश और दुनिया को आत्म मूल्यांकन करने और भविष्य की रणनीति बनाने का अवसर भी देती हैं।

नेशनल हेल्थ प्रोफाइल-2019 (http://www.cbhidghs.nic.in/) द्वारा जारी किए गए आंकड़ों के अनुसार भारत अपने सकल घरेलू उत्पाद (2017-18 बीई) का केवल 1.28% स्वास्थ्य पर सार्वजनिक व्यय के रूप में खर्च करता है। प्रति व्यक्ति के हिसाब से स्वास्थ सेवाओं पर मात्र 1657 रुपये खर्च करता है। एनएचपी में उपलब्ध तुलनात्मक आंकड़ों के अनुसार दक्षिण पूर्व एशिया क्षेत्र के 10 देशों में से भारत केवल बांग्लादेश से ऊपर है। भारत के पड़ोसी देश, जैसे श्रीलंका, इंडोनेशिया, नेपाल, और म्यांमार स्वास्थ्य सेवाओं पर भारत की तुलना में कहीं अधिक खर्च कर रहे हैं। ओईसीडी देशों और विकसित राष्ट्रों जैसे अमेरिका, जर्मनी फ्रांस या जापान से तो तुलना ही नहीं की जा सकती। डब्ल्यूएचओ द्वारा अनुशंसित प्रत्येक 1,000 लोगों के लिए एक डॉक्टर के विपरीत भारत में 11,500 से अधिक लोगों के लिए केवल एक सरकारी डॉक्टर है। निजी क्षेत्र में अधिक बेड और अधिक डॉक्टर (कर्मचारी) हो सकते हैं परंतु सार्वजनिक स्वास्थ्य के प्रति उनका कोई उत्तरदायित्व नहीं है और भारत की ज्यादातर आबादी इन स्वास्थ्य सेवाओं का लाभ लेने के लिए भी आर्थिक रूप से सक्षम नहीं है। इसके अतिरिक्त, स्वास्थ्य देखभाल सुविधाओं के संबंध में ग्रामीण-शहरी विभाजन बहुत महत्वपूर्ण है; उदाहरण के लिए- 73% ‘पब्लिक हॉस्पिटल बेड्सशहरी क्षेत्रों में विद्यमान हैं, जबकि भारत की 69% जनसंख्या ग्रामीण इलाकों में निवास करती है।

कोरोना महामारी के खिलाफ युद्ध में पहली पंक्ति में लड़ने वालों को देखकर हमें  आश्चर्य नहीं करना चाहिए क्योंकि यही सच्चे योद्धा हैं जो अपना स्वास्थ्य, अपना परिवार और अपना जीवन दाँव पर लगाकर अपने देशवासियों को बचाने में दिन रात लगे हुए हैं। छोटे-छोटे गांव और ढाणियों से लेकर बड़े-बड़े महानगरों में दिन रात काम में लगे डॉक्टर और नर्सिंग स्टाफ, 24*7 लोगों की सेवा में मुस्तैद पुलिस अधिकारी और कर्मचारी, नगर निगम और नगर पालिका के अधिकारी और कर्मचारी, जिलों में तैनात प्रशासनिक अधिकारी, देश की धमनियों में रक्त प्रवाह करने वाली भारतीय रेल द्वारा देश के विभिन्न भागों में राशन पहुंचाना सुनिश्चित करने वाले रेलवे कर्मचारी, विभिन्न सार्वजनिक उपक्रमों में रिसर्च कर रहे हमारे वैज्ञानिक और सच्चाई व ईमानदारी से मानवता के लिए समर्पित एनजीओ आज देश के लिए सबसे अमूल्य और जीवनदायी हैं। निजी क्षेत्र का जन्म ही पूंजीवादी दृष्टिकोण/ लाभकारी विचारधारा को लेकर हुआ है और इसलिए राष्ट्रीय विपदा या संकट की घड़ी में समाजवादी दृष्टिकोण से काम करना उनकी कोई भी अनिवार्यता या बाध्यता नहीं है। यही कारण है की बहुत सारे निजी क्षेत्र के हॉस्पिटल अपने आप को कोरोना बीमारी के लिए चिन्हित होने से बचाने के लिए अधिकारियों के चक्कर लगाते हुए देखे जा सकते हैं। यद्यपि यहां यह कहने का आशय नहीं है कि निजी क्षेत्र का योगदान सार्वजनिक स्वास्थ्य और सार्वजनिक सेवाओं में कमतर है; मंथन का विषय केवल इतना है कि लाभकारी विचारधारा से प्रेरित निजी क्षेत्र इन कार्यों को करने के लिए बाध्यकारी नहीं है।

कोरोना महामारी के विरुद्ध युद्ध ने सार्वजनिक स्वास्थ्य और सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं के महत्व की ओर सरकार, राजनीतिक नेतृत्व, बुद्धिजीवी वर्ग और आम जनता का ध्यान आकर्षित किया है। मीडिया न्यूज़ और पब्लिक प्लेटफॉर्म पर उपलब्ध सूचनाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि देश के ज्यादातर हिस्‍सों में डॉक्‍टर और स्‍वास्‍थ्‍यकर्मी रोगियों का इलाज करने से जुड़े सुरक्षात्मक उपकरणों, उनको संक्रमण से बचाने के लिए आवश्यक उच्च गुणवत्ता के मास्क, व्यक्तिगत सुरक्षा उपकरणों (पीपीई)  की मांग और सप्लाई के अंतर से जूझ रहे है। ग्रामीण भारत में कोरोना वायरस के खिलाफ रक्षा की पहली पंक्ति कही जाने वाली 9,00,000 “आशासामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं के पास मास्क या हैंड सैनिटाइज़र के अभाव की खबरें आ रही हैं और यह तथ्यों से स्पष्ट है कि ज्यादातर हमारे योद्धा (डॉक्टर, स्वास्थ्य कर्मचारी और सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता) सरकारी या सार्वजनिक क्षेत्र से आते हैं; जहां संसाधनों का अभाव देखा जाता है। ऐसी राष्ट्रीय आपदा के समय सार्वजनिक क्षेत्र की भूमिका कितनी महत्वपूर्ण और कारगर है, इसे समझने और इस पर विचार करने की आवश्यकता है।

कोरोना महामारी ने हमें यह अवसर दिया है कि हम अपनी नीति, नीयत और रणनीति पर गहराई से मंथन करें और विचार करें। देश की सुरक्षा, एकता-अखंडता और लोगों के कल्याण से सीधे-सीधे जुड़े हुए सार्वजनिक क्षेत्र को मजबूत किया जाए और उसके प्रति लाभकारी दृष्टिकोण के बजाय कल्याणकारी दृष्टिकोण से विचार किया जाए। यह विचार इसलिए भी बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि आज भी भारत की जनसंख्या का बहुत बड़ा हिस्सा गांवों और गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन कर रहा है जो निजी क्षेत्र की सुविधाओं का लाभ नहीं ले सकता और लेने का प्रयास करता है तो गरीबी के कुचक्र की गहराई में और फंस जाता है। लोगों के कल्याण से जुड़ा हुआ सबसे महत्वपूर्ण सार्वजनिक क्षेत्र सार्वजनिक स्वास्थ्य ही है; जिस पर हमारे नीति निर्धारकों को सबसे ज्यादा महत्व देने और उसके लिए पर्याप्त राजस्व उपलब्ध कराने के लिए के लिए नीति निर्धारण की आवश्यकता है।

कोरोना जैसी महामारी से निपटने के लिए हमें अपनी प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं को और अधिक मजबूत करने की आवश्यकता है। इसके लिए सबसे महत्वपूर्ण है- जिला स्तर के सार्वजनिक अस्पतालों को एक सुपर स्पेशलिटी अस्पताल के रूप में विकसित करने की ताकि ग्रामीण क्षेत्र के लोगों को अपने नजदीक ही गंभीर बीमारियों सहित सभी प्रकार की स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध हो सकें। इससे कोरोना जैसी महामारी के समय मरीजों को तुरंत इलाज मिलना संभव हो सकेगा और साथ ही बड़े या मुख्य अस्पतालों में मरीजों के दबाव को कम किया जा सकेगा। दूसरा स्वास्थ्य जैसी आपदाओं के समय किस प्रकार देश के संसाधनों का बेहतर उपयोग किया जाए। विभिन्न विभागों एवं क्षेत्रों में कार्यरत एजेंसियों, नीति निर्धारकों एवं कर्मचारियों के बीच कैसे समन्वय बनाया जाए। वेतन कटौती, अनुदानों की प्राप्ति, जरूरतमंदों की आर्थिक मदद जैसे विषयों पर किस प्रकार निर्णय लिए जाए इसके लिएनेशनल हेल्थ इमरजेंसी एक्टजैसे किसी कानून का प्रावधान भी किया जा सकता है। जनसंख्या वृद्धि, जलवायु परिवर्तन  एवं मनुष्य की खानपान की आदतों में बदलाव आदि के कारण आपदाएं और महामारी हमारे जीवन का हिस्सा बनती जा रही हैं इसलिए इनसे निपटने के लिए पहले ही तैयारी करके रखना समय की मांग बन गई है। अतः इसके लिए विशेषकर स्वास्थ्य क्षेत्र में जैव प्रौद्योगिकी एवं चिकित्सा अनुसंधान पर विशेष ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है ताकि समय पर कोरोना जैसी महामारी से निपटने के लिए दवाओं एवं टीकों का विकास किया जा सके। अन्यथा हमें दूसरों देशों पर निर्भर होना पड़ सकता है जो कि एक विकसित अर्थव्यवस्था के लिए बिल्कुल भी उचित नहीं होगा। इसके साथ साथ स्वास्थ्य के संबंध में जागरूकता को बढ़ाया जाए एवं स्वच्छता हमारे दैनिक जीवन का हिस्सा होनी चाहिए। उदाहरण के लिए जापान जैसे विकसित राष्ट्रों में बच्चों को विद्यालय स्तर से ही हाथों की साफ-सफाई एवं स्वच्छता जुड़ी सामान्य बातें सिखाई जाती हैं। भारत ने लक्ष्य रखा है कि 2025 तक सकल घरेलू उत्पाद का 2.5% हिस्सा सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए खर्च किया जाएगा। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए पूरी ईमानदारी से प्रयासों की आवश्यकता है। जिस प्रकार देश की रक्षा के लिए रक्षा बजट महत्वपूर्ण है; उसी प्रकार देश के लोगों के स्वास्थ्य को सुनिश्चित करने के लिए स्वास्थ्य बजट भी उतना ही महत्वपूर्ण है। विकसित और समृद्ध राष्ट्र बनने के लिए आर्थिक विकास के साथ-साथ सार्वजनिक स्वास्थ्य को उच्च प्राथमिकता देना अत्यावश्यक है। भारत को भी विकसित और समृद्ध राष्ट्र बनने के लिए सार्वजनिक स्वास्थ सेवाओं पर न केवल सकल घरेलू उत्पाद का बड़ा हिस्सा खर्च करने की आवश्यकता है बल्कि दूरगामी नीति निर्धारण करने और उनका पारदर्शिता के साथ उत्तरदायित्वपूर्ण क्रियान्वयन कर उनके सकारात्मक परिणाम सुनिश्चित करना भी आवश्यक है।

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)

0Shares
loading...

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

You missed