रायपुर,
अपने विद्यार्थी जीवन से लेकर पत्रकार के प्रोफेशनल करियर में सालों बिताने के दौरान कई बार एक कहावत जरूर सुनने को मिली कि ” जीवन में आगे बढ़ना है, सफल होना है, तो अपनी लाइन को लंबी खींचिये, दूसरे की पहले से खींची हुई लकीर को छोटा करने के चक्कर में अपने धन और समय जाया न करें”। बात पते की है हर शख्स के जीवन और हर प्रोफेशन पर एकदम फिट बैठती है। लेकिन इसका जिक्र यहां में छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री के नाम से क्यों कर रहा हूं, तो इसकी वजह है मुझे छत्तीसगढ़ में कांग्रेस सरकार अपनी लकीर लंबी खींचने की बजाय, पहले से खींची गई लकीर को छोटा करने में अपना समय और जनता का धन बर्बाद करने की कोशिश करती नजर आ रही है।
भूपेश बघेल ने 17 दिसंबर 2018 को मुख्यमंत्री पद की शपथ ली है। वो छत्तीसगढ़ में कांग्रेस के पहले निर्वाचित मुख्यमंत्री हैं। जनता ने पहली बार छत्तीसगढ़ में कांग्रेस को 68 सीटें देकर सरकार बनाने का मौका दिया। सरकार बने और मुख्यमंत्री पद की शपथ लिये भूपेश बघेल को 6 महीने हो चुके हैं। लेकिन इन 6 महीनों में सरकार का ऐसा कोई काम जनता तक नहीं पहुंचा है, जिसे धरातल पर उतरा हुआ काम कहा जा सके। सरकार काम कर रही है, फाइलें इधर से उधर हो रही हैं। घोषणा पत्र में किये गए वादों में से कुछ को अमलीजामा पहना भी जा चुका है, भले ही इसके लिए सरकार को कर्ज ही क्यों न लेना पड़ा हो। वादे निभाए गए हैं, कर्ज लिया गया है। लेकिन इन सब के बीच एक मुद्दा ऐसा भी है, जिसे राजधानी में रहने वाला हर कांग्रेसी नेता आए दिन कभी मीडिया के सामने तो कभी पीसीसी भवन में कहता-सुनाता नजर आ जाता है, और वो मुद्दा है, रायपुर के बीचों-बीच स्काईवॉक के नाम पर खड़े किए गए खंभे।
स्काईवॉक को तोड़कर इसे नेस्तनाबूद करके ही दम लेंगे ऐसा वादा कांग्रेस ने न तो अपने घोषणा पत्र में किया था औऱ न स्काई वॉक कोई ऐसा मुद्दा है जिसे सरकार को अपनी पहली प्राथमिकताओं में से एक रखना पड़ रहा हो। लेकिन सरकार की ओर से स्काईवॉक को रखें या तोड़ें, इसे लेकर जनता से रायशुमारी की जा रही है। महीनों से कुछ समाचार पत्र और टीवी न्यूज़ चैनल पर भी अपने-अपने हिसाब से स्काईवॉक की उपयोगिता और अनुपयोगिता, इसे पूरा करने या तोड़ देने जैसे सवालों के साथ जनता से राय जानने में जुटे हैँ।
जाहिर है, इस सर्वे और रायशुमारी में समय और पैसा दोनों ही खर्च हो रहा है। दूसरा माहौल ऐसा बन रहा है कि स्काईवॉक का मुद्दा सरकार की पहली प्राथमिकता है। दूसरे अहम मुद्दे जिन पर कि सरकार को ध्यान देना था, वो गायब हैँ। खुद मुख्यमंत्री भूपेश बघेल मीडिया के सामने स्काईवॉक का जिक्र कर चुके हैं। सरकार ये तय भी कर चुकी है कि स्काईवॉक के खंभों को तोड़ा जाएगा,,इसे गिराया जाएगा। ठीक है, सरकार फैसला कर चुकी है। लेकिन इन खंभों को तोड़ने पर जो खर्चा आएगा वो भी तो सरकारी खजाने से आएगा, जो जनता के टैक्स का पैसा होगा। पिछली सरकार ने जनता की इच्छा जाने बिना स्काईवॉक के खंभे खड़े कर दिये, लेकिन भूपेश सरकार खुद को जनहितैषी बताकर जनता से रायशुमारी और जनइच्छा का हवाला देकर स्काईवॉक के खंभों को तोड़ने की तैयारी में है।
ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि क्या मुख्यमंत्री भूपेश बघेल अपनी लकीर लंबी खींच रहे हैं, या अपनी लकीर लंबी खींचने के चक्कर में पिछली सरकार की खींची गई लकीर को छोटा करने में जुटे हैं।
मुझे याद है 2012 का उत्तर प्रदेश का विधानसभा चुनाव जब समाजवादी पार्टी को जनता ने पूरा बहुमत दिया और अखिलेश यादव राज्य के युवा मुख्यमंत्री बनकर सामने आए। तब अखिलेश यादव ने अपनी पहली ही प्रेस कॉन्फ्रेंस में ये कहा था कि मायावती ने अपने शासनकाल के दौरान जितने भी पार्क, हाथी, घोड़े और स्मारक बनाए हैं, जितनी भी फिजूलखर्चियां की हैं, उनको तोड़ने या गिराने पर एक भी रुपया उनकी सरकार के द्वारा खर्च नहीं किया जाएगा। बल्कि फिजूलखर्ची के इन स्मारकों को जिंदा रखा जाएगा ताकि जनता ये जान सके कि जिस सरकार को उन्होंने चुना था,,उसने सैकड़ों करोड़ रुपये किस चीज पर खर्च किये और उनका क्या उपयोग हो रहा है।
ऐसा ही सिद्धांत मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को स्काईवॉक को लेकर क्यों नहीं अपनाना चाहिए। स्काईवॉक से किसी तरह का ट्रैफिक जाम तो हो नहीं रहा है, फिर इनको तोड़ने की जल्दबाजी क्यों। क्यों न इसे भाजपा सरकार के भ्रष्टाचार के स्तंभ और कमीशनखोरी के पुतलों के रूप में तब तक बनाए रखा जाए. जब तक कि जनता खुद उन अफसरों और उस सरकार से सवाल पूछने शुरु न कर दे। कि इनको बनाने से पहले आपने किस से राय ली थी।
स्काईवॉक के नाम पर खड़े करप्शन के खंभों को क्यों ने खड़ा रखा जाए ताकि जनता को ये खंभे भाजपा सरकार के कुछ गलत फैसलों की बार-बार याद दिलाते रहें।
मुख्यमंत्री खंभों की कहानी से आगे बढ़कर अपने जरूरी काम और जनहित की प्राथमिकताओं पर 50 करोड़ खर्च करें। नये स्कूल-कॉलेज, यूनिवर्सिटी खोलें, नए अस्पताल बनवाएं, अंबेडकर और डीकेएस अस्पताल में बिगड़ी स्वास्थ्य सेवाओं को सुधारने के लिए नई मशीनें और स्टाफ की भर्तियां करें। 50 करोड़ में एक नया अस्पताल खड़ा हो सकता है, और कॉलेज बन सकता है, किसी विभाग का गठन हो सकता है। बुलडोजर के नाम पर 50 करोड़ मिट्टी में मिलाने और अपनी लकीर लंबी करने के चक्कर में दूसरे की लकीर मिटाने में समय और धन की बर्बादी से बचना चाहिए।