के. विक्रम राव, वरिष्ठ पत्रकार

एक दौर था जब “संपादक के नाम पत्र” का महत्व समाचार पत्रों में अग्रलेखों के ठीक बाद हुआ करता था| चर्चित पत्र अंतिम होता, तो श्रेष्ट पत्र पर पारितोष की परम्परा भी थी| ज़माना बदला| अब विज्ञापनदाता ही भारी भरकम संवाददाताओं को कोहनी मार देते हैं| तो अदना पाठक की क्या विसात? उसका कालम-स्पेस तो सिकुड़ेगा ही| ऐसे मंजर में परसों (4 जुलाई 2020) मुंबई के मलाड में 90-वर्षीय एंथोनी पाराकल का निधन पीड़ादायक है| अर्धशती तक समाचारपत्रों में पांच हजार के करीब पत्र लिखकर वे “लिमका बुक ऑफ़ रिकार्ड्स” में उल्लिखित हो चुके हैं| असंख्य जनसमस्याओं के प्रति अधिकारियों का ध्यानाकर्षित कर उनका हल करा चुके हैं| एंथोनी का तखल्लुस ही “सर्वोदयम” पड़ गया था| एक रेल कर्मी के तौर पर झाँसी स्टेशन से पाराकल ने जीवन प्रारंभ किया था| पश्चिम रेल में मुंबई आये| वहीँ के हो लिए| उनके एक मर्मस्पर्शी पत्र से उच्च रेल अधिकारियों ने मलाड उपनगरीय प्लेटफ़ॉर्म को ऊँचा बना दिया| पहले यात्रियों को छोटे प्लेटफ़ॉर्म और पटरी के बीच खुले स्थान से दुर्घटनाओं का भय रहता था| प्रधान मंत्रियों तक ने एंथोनी के पत्रों से सूचना पाकर समाधान के आदेश दिये थे| उनमें राजीव गाँधी और मोरारजी देसाई शामिल हैं| एक बार मैंने भी देखा उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री को खुद “संपादक के नाम पत्र” पढ़ते| फिर वे उच्च अधिकारी को फोन पर आदेश दे रहे थे| मैं चाय पर गया था| तभी विश्वनाथ प्रताप सिंह दैनिक अख़बारों को बांच रहे थे|

किस्सा गुलाम भारत का है| लन्दन की एक वृद्धा ने खबर पढ़ी कि महात्मा गाँधी गिरफ्तार कर लिये गए थे| उसने पूछा कि “इस गाँधी की मांग क्या है?” बताया गया कि “आजादी मांग रहे हैं|” इसपर वह अंग्रेज बुढ़िया बोली, “ गाँधी से कहो कि ‘लन्दन टाइम्स’ के संपादक नाम पत्र लिखें| मिल जाएगी|” इसी विषय पर मेरा ज्ञानवर्धन एक कनिष्ठ पत्रकार साथी ने कराया था| वह उन ग्यारह सौ सदस्यों में था जिन्हें इंडियन फेडरेशन ऑफ़ वर्किंग जर्नलिस्ट्स (IFWJ) के अध्यक्ष के नाते मैंने दस सालों में विश्व के विभिन्न मीडिया संस्थानों में अध्ययन-यात्रा हेतु भेजा था| वह मास्को में “प्रावदा” (सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी का मुख-पत्र) के सम्पादकीय विभाग में गया| वहाँ “संपादक के नाम पत्र” का पृथक विभाग था| पाठकों के पत्र सीधे संबंधित प्रशासकीय अथवा सामाजिक विभागों को संदर्भित कर दिए जाते थे| चंद दिनों में ही समस्या का अंत हो जाता था| इन पत्रों में अधिकतर मोहल्लों की सफाई, स्कूली बसों की अनियमितता, चिकित्सा सुविधा का अभाव, सड़क की मरम्मत आदि की बातें होती थीं| तब मैंने लखनऊ म्युनिसिपालिटी के कार्यकलापों को अनायास याद किया था|

मेरा निजी आकलन है कि इन आंचलिक संवाददाताओं की भांति संपादक के नाम पाती लिखनेवालों की भी अपनी ही आवश्यकता है| एक बार मैं बड़ोदरा से पड़ोस के आनंद नगर में अमूल फैक्टरी के समारोह में गया| प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी आ रहीं थीं| वहाँ मुझे कुर्ता-टोपी पहने एक वृद्ध मिले| उन्होंने शिकायत की कि “आपकी गुजरात यूनियन मुझे सदस्य नहीं बनाती है|” मैंने साथियों से पूछा| एक पदाधिकारी ने बताया कि ये वृद्ध महाशय अपने को संवाददाता बताते हैं, किन्तु यह केवल दैनिकों के संपादकों के नाम पत्र लिखा करते हैं और प्रकाशित कतरनों के आधार पर अपने को संवाददाता बताते हैं| मेरी राय थी कि ऐसे अनवरत “लेखक” भी अंशकालिक संवाददाताओं की श्रेणी में वर्णित हो सकते हैं| वे लोग एक रूप से संवाद-सूत्र तो हैं ही| मैंने उन वृद्ध महोदय से वादा किया कि श्रमजीवी पत्रकार कानून में संशोधन की मांग पेश की जाएगी| आजकल दैनिकों में तो ऐसे कई समाचार-सूत्र कार्यरत हैं | आखिर उनका योगदान भी सेतुसमुद्रम के निर्माण में चिखुरी जैसा होता है, जिसे स्वयं मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने स्वीकार किया था|

किन्तु एकदा ऐसे एक पत्र-लेखक के कारण मुझ पर घोर संकट भी आ पड़ा था| उस दिन से मैं इन पत्र लेखकों को LTTE (Letters to the Editor) अर्थात आतंकवादी मानने लगा हूँ| एक अक्षम्य पेशेवर अपराध मुझसे हो गया था | किस्सा बम्बई (अब मुंबई) वाला है| प्रधानमंत्री कांग्रेस पार्टी कार्यक्रम में आ रहे थे| तब मैं “टाइम्स ऑफ़ इंडिया” में कनिष्ठतम रिपोर्टर था| जवाहरलाल नेहरु के अन्य महत्वपूर्ण कार्यक्रम को कवर करने के लिए वरिष्ठ संवाददाता तैनात हुए| मेरे जिम्मे प्रधानमंत्री के सांताक्रूज हवाई अड्डे पर केवल आगमन की रपट मात्र ढाई सौ शब्दों में लिखने का काम था| मैं सांताक्रूज गया ही नहीं| मगर रपट पूरी काव्यात्मक लिखी| भीड़ द्वारा गर्मजोशी से स्वागत, राज्यपाल और मुख्यमंत्री द्वारा अभिनन्दन, पुष्प की बौछार, जिंदाबाद के नारे आदि| बस अपने लखनवी अंदाज में एक वाक्य मैंने जोड़ दिया था कि “और जैसा होता रहा, प्रधानमंत्री की अचकन के बटन में लाल गुलाब बड़ा फब रहा था|” रपट छप गई | साथ में जहाज से उतरते नेहरु की फोटो भी| तीसरे दिन चीफ रिपोर्टर के सामने मेरी पेशी हुई| संपादक के नाम एक पत्र आया था| लेखक कोई पारसी था, जो रमणीय लोनावाला का वासी था, जहाँ अधिकतर रिटायर्ड बम्बैये लोग रहते हैं| सुबह से लेकर सूरज ढलने तक उनके पास वक्त ही वक्त होता है| वे लोग “टाइम्स ऑफ़ इंडिया” के मास्ट हेड (शीर्ष) से अंतिम पेज के “प्रकाशित, मुद्रित एवं सम्पादित” की पंक्ति तक अखबार चाट जाते हैं| प्रत्येक लाइन पर जीभ पूरी फेरते हैं| उनके पत्र में लिखा था, “आपके संवाददाता ने लिखा कि पण्डितजी गुलाब से गुंथा हुआ अचकन पहने थे, जबकि प्रकाशित फोटो में प्रधान मंत्री सदरी (जैकेट) पहने थे| कौन सच है -–फोटोग्राफर अथवा रिपोर्टर?” तब मुझे एहसास हुआ कि लखनऊ में दिसंबर में ठंढ होती है तो अचकन ही पहना जाता है| बम्बई में तो सर्दी पड़ती ही नहीं, अतः प्रधान मंत्री ने दिल्ली में पहनी अचकन उतार कर जहाज में सदरी पहन ली थी| मुझ से गलती हुई| मैंने क्षमा याचना की| चेतावनी मिली| मगर मैं उस खूसट पत्रलेखक के वालिदैन को मन ही मन कीमती तोहफे पेश करता रहा|

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