विशेष आलेख।

डॉ. सत्यपाल सिंह मीना, आईआरएस

इंदौर, 28 मई 2020

कोरोना वैश्विक महामारी ने जिन मुद्दों और समस्याओं की तरफ सरकारों और लोगों का सर्वाधिक ध्यान आकर्षित किया है, उनमें से प्रवासी कामगारों की समस्या सबसे गंभीर है। जनगणना 2011 के अनुसार भारत में प्रतिवर्ष लगभग 40 करोड़ लोग रोजगार के लिए प्रवास करते हैं, जिनमें 5.5 करोड़ अंतर-राज्यीय प्रवासी सम्मिलित हैं। इसके अतिरिक्त भारत से बड़ी तादाद में लोग रोजगार की तलाश में दूसरे देशों में भी जाते हैं, जिनमें से खाड़ी देशों में ही लगभग 90 लाख लोग प्रवास करते हैं; जो ज्यादातर कम  कुशलता एवं कम वेतन वाले कार्यों से जुड़े है। खाड़ी देशों में मिलने वाला वेतन भारत में न्यूनतम मजदूरी से अधिक होता है, इसलिए भारत से लोग वहां जाना पसंद करते हैं।

आवधिक श्रमबल सर्वेक्षण 2017-18 के अनुसार भारत की श्रम शक्ति का 87% हिस्सा असंगठित क्षेत्र में कार्यरत है। प्रवासी मजदूरों की भी अधिकांश संख्या अनौपचारिक क्षेत्र से जुड़ी हुई है, जहां उन्हें विभिन्न प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ता है। नेशनल सैंपल सर्वे एवं भारतीय मानव विकास सर्वेक्षण के अनुसार प्रवासी मजदूरों की अधिकांश  जनसंख्या पिछड़े क्षेत्रों, पिछड़े राज्यों तथा आर्थिक एवं सामाजिक रूप से पिछड़े वर्गों, विशेष तौर पर एसटी, एससी एवं ओबीसी से संबंधित है।

उदाहरण के लिए, जनगणना 2011 के आंकड़ों के अनुसार अंतर-राज्यीय प्रवास की 50% जनसंख्या उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों से संबंधित है। इसमें उत्तर प्रदेश एवं बिहार का हिस्सा 37% है। प्रवास निम्न आय वाले परिवारों की आजीविका का मुख्य स्रोत बन गया है, इसीलिए प्रतिवर्ष 4.5% की दर से अंतर-राज्यीय प्रवास में वृद्धि हो रही है।

कोरोना वायरस संकट ने हमारा ध्यान उन समस्याओं की ओर आकर्षित किया है जिनका सामना इन प्रवासी श्रमिकों को आए दिन करना पड़ता है। भोजन, आवास, अपर्याप्त वेतन जैसी दैनिक समस्याओं के अलावा अनियमित रोजगार में कार्यरत रहने के कारण ये लोग श्रमिकों से जुड़े कानूनी अधिकारों से भी वंचित रहते हैं, जैसे स्वास्थ्य संबंधी लाभ, मातृत्व अवकाश, समुचित वेतन, श्रमिक संघ संगठित करने का अधिकार आदि। नियोक्ता के साथ लिखित समझौता नहीं होने के कारण इन्हें पर्याप्त एवं नियमित वेतन नहीं मिलता है। इसके अलावा, शिक्षित एवं जागरूक नहीं होने के कारण ये श्रमिक आर्थिक शोषण का शिकार बनते है। इन आर्थिक व सामाजिक समस्याओं के अलावा प्रवासियों को नैतिक, सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक विकास जैसे अवसरों से भी वंचित होना पड़ता है। कार्य स्थल पर पर्याप्त सुविधाओं के अभाव, निम्न आय एवं गरीबी ने इन मजदूरों को इस संकट की घड़ी में अपने घर लौटने के लिए विवश कर दिया है, क्योंकि इन शहरों की बेरुखी इन्हें रास नहीं आ रही इसलिए इनके पैर उन गांवों की तरफ चल पड़े हैं जहां इन्हें आत्मीयता, सामाजिक सहयोग एवं अंतिम आसरे की उम्मीद है।

25 मार्च को प्रथम लॉक डाउन से प्रारंभ हुआ मजदूरों का पैदल मार्च अब तक थमने का नाम नहीं ले रहा है। घर लौटने की इस जद्दोजहद में अब तक कई प्रवासी अपनी जान गवा बैठे हैं, जिनमें छत्तीसगढ़ की 12 वर्षीय जमलो मकदम जिसकी मृत्यु तेलंगाना से पैदल अपने घर लौटते समय हो गई एवं अभी हाल में महाराष्ट्र के औरंगाबाद में 16 मजदूर की पटरी पर सोते समय ट्रेन की चपेट में आने से मौत जैसी दुखद घटनाएं शामिल हैं। लाखों मजदूर अपने गंतव्य के लिए पैदल चलने को मजबूर हैं जिनमें महिलाओं के साथ साथ छोटे बच्चे भी शामिल है। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार कोरोना संकट की वजह से भारत के अनौपचारिक क्षेत्र में कार्यरत 40 करोड़ लोगों के और अधिक गरीबी में गिरने का खतरा है जिसके परिणाम घातक हो सकते हैं।

महामारी के कारण उत्पन्न विकट परिस्थितियों में जन्मी इस समस्या के विषय में गहन चिंतन, विचार विमर्श और दूरगामी नीति निर्धारण की आवश्यकता है ताकि भविष्य में इस प्रकार की समस्याओं का उचित प्रबंधन और समय रहते समाधान किया जा सके। सबसे महत्वपूर्ण विषय यह है क्या अपने ही देश में संविधान प्रदत्त अधिकारों के बावजूद कामगारों को प्रवासी कहना, उनके साथ परायों जैसा व्यवहार करना और उन्हें केवल एक वस्तु मात्र समझना उचित है। प्रवासी शब्द ही कामगारों को उनके देश के नागरिक होने से कम तर आंकता है। प्रवासी शब्द मात्र ही उन्हें बेघर, मेजबान राज्य पर निर्भर और आत्म स्वाभिमान से वंचित करता है। भारतीय अर्थव्यवस्था और व्यापारिक परिदृश्य में भी श्रम को उचित सम्मान और उचित स्थान नहीं दिया जाता जबकि अर्थव्यवस्था में कामगारों का योगदान अत्यंत में महत्वपूर्ण होता है। जैसा कि अब्राहम लिंकन ने कहा था: “श्रम पूंजी से पहले और स्वतंत्र है। पूंजी केवल श्रम का फल है और पूंजी कभी भी अस्तित्व में नहीं आ सकती थी; यदि श्रम का अस्तित्व में नहीं होता। अतः श्रम पूंजी से श्रेष्ठ है और यह अधिक महत्व का हकदार है।” अंतरराष्ट्रीय वैश्विक जगत में भारत को सस्ते श्रम एक कारण ही आकर्षण का केंद्र माना जाता है; इसके उपरांत भी कामगारों को उचित स्थान और अधिकार प्राप्त नहीं है।

जहां एक और कामगारों की समस्या को मानवीय दृष्टिकोण से देखने की आवश्यकता है। काम और श्रम को उचित महत्व देने की आवश्यकता है और उन्हें अर्थव्यवस्था और समाज का अभिन्न अंग मानने और सम्मान देने की आवश्यकता है। यदि कामगारों को व्यवसाय का सहभागी नहीं तो सहयोगी मानने आवश्यकता है। यह दृष्टिकोण मात्र ही कामगारों की समस्या को इतना गंभीर होने से बचा सकता था। दूसरी और मजदूरों की समस्याओं के दूरगामी समाधान के लिए सरकारी प्रयासों को और अधिक व्यवस्थित एवं संगठित किए जाने की आवश्यकता है ताकि मजदूरों की आर्थिक एवं सामाजिक समस्याओं का समुचित समाधान किया जा सके। इस प्रयास में निम्‍नलिखित बिंदुओं पर ध्‍यान दिया जा सकता हैं:

  • आवास और शहरी गरीबी उपशमन मंत्रालय द्वारा 2015 में पार्थ मुखोपाध्याय की अध्यक्षता, 18 सदस्यीय कार्यकारी समूह बनाया जिसमें प्रवासी कामगारों की समस्या पर विस्तृत सिफारिशें प्रस्तुत की थी जिन्हें लागू करने की आवश्यकता है।
  • मुख्यतय असंगठित क्षेत्र के मजदूरों की समस्या सबसे बड़ी है। असंगठित क्षेत्र के मजदूरों के लिए एक व्यापक नीति बनाने की आवश्यकता ताकि उन्हें काम करने की उचित परिस्थितियां, समय पर मजदूरी, उचित वेतन, अवकाश एवं कार्यस्थल पर सुरक्षा प्राप्त हो सके।
  • सभी प्रवासी मजदूरों की कार्यस्थल पर ही खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए “वन नेशन – वन राशन कार्ड” स्कीम को प्रभावी बनाया जाए। इस संदर्भ में हम हर मजदूर के लिए एक ‘श्रमिक कार्ड’ जैसी अवधारणा पर विचार कर सकते हैं जो आधार कार्ड और स्‍वास्‍थ्‍य सुरक्षा जैसी अन्‍य जरूरी सुविधाओं से लिंक हो जो श्रमिकों को गंतव्य राज्य में सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) का लाभ उठाने में सक्षम बना सके
  • राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम एवं जन वितरण प्रणाली के अंतर्गत खाद्यान्न बास्केट का विस्तार किया जाए, जिसके अंतर्गत मोटा अनाज, दाल, तेल जैसी आवश्‍यक सामग्री को शामिल किया जा सकता है। इससे श्रमिकों की खाद्य सुरक्षा के साथ-साथ माइक्रो न्यूट्रिशन संबंधी समस्याओं का समाधान किया जा सकता है।
  • श्रमिकों के बच्‍चों की शिक्षा के लिए कार्यस्‍थल पर ही श्रमिक स्‍कूल खोले जा सकते हैं जिनका लिंक दूसरे कार्यस्‍थलों पर चल रहे ऐसे ही श्रमिक स्‍कूलों से भी हो ताकि जब मजदूर एक जगह से दूसरी जगह जायें तो उनके बच्चों की आगे की शिक्षा उस जगह पर स्‍थित श्रमिक स्‍कूल से पूरी हो सके। इसके लिए गैर-सरकारी संगठनों की सहायता ली जा सकती है।
  • वर्तमान संकट को ध्यान में रखते हुए मनरेगा के अंतर्गत कार्य दिवसों की संख्या 100 से बढ़ाकर 200 की जा सकती है जिसका सीधा प्रभाव गरीब लोगों की आमदनी पर पड़ेगा और अर्थव्यवस्था में मांग को मजबूती देने में सबसे महत्वपूर्ण कदम हो सकता है।
  • अत्यधिक गरीब लोगों की न्यूनतम आय सुनिश्चित करने के लिए यूनिवर्सल बेसिक इनकम जैसी किसी योजना पर विचार किया जा सकता है ताकि इस तबके को गरीबी के कुचक्र से बाहर निकाला जा सके।
  • इसके अतिरिक्त राज्य सरकारें एवं केंद्र सरकार यह सुनिश्चित करें कि उनके पास प्रवासी श्रमिकों का पर्याप्त डाटा रहे ताकि नीतिगत निर्णय लेते समय इसका उपयोग किया जा सके; इसके लिए इसको सरकारी योजना के साथ संलग्न किया जा सकता है ताकि मजदूर अपना रजिस्ट्रेशन कराने के लिए प्रेरित हो।

हमें प्रवासियों की समस्या को संपूर्णता में देखने की आवश्यकता है जिसके लिए तात्कालिक के साथ साथ दीर्घकालिक रणनीति बनाना जरूरी है। इसके लिए हमें शहरों के साथ-साथ गांवों में भी लाभदायक रोजगार सृजित करने होंगे। इसके लिए ग्रामीण विकास पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। यदि भारत विश्व की आर्थिक एवं राजनैतिक महाशक्ति बनना चाहता है तो उसे अपने संसाधनों का इष्टतम उपयोग करना होगा। हम अपने जनसांख्यिकी लाभांश का फायदा तभी उठा सकते हैं; जब हम अपने युवाओं को अच्छा स्किल एवं रोजगार देने में सफल होंगे। हमें अपने सेवा क्षेत्र के विकास के साथ साथ कृषि क्षेत्र में और अधिक पूंजी एवं तकनीकी निवेश बढ़ाना होगा ताकि कृषि को एक लाभकारी व्यवसाय बनाया जा सके। इससे हम अतिरिक्त प्रवास को रोकने में सफल होंगे तथा शहरों में बढ़ते जनसंख्या दबाव को कम किया जा सकेगा।

जैसा कि हम जानते हैं प्रवासी जनसंख्या का अधिकांश भाग समाज के वंचित एवं संवेदनशील वर्गों से आता है, इसलिए उनके आर्थिक एवं सामाजिक विकास पर विशेष ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है ताकि इन वर्गों को आर्थिक एवं सामाजिक शोषण से मुक्ति दिलाई जा सके और इन्हें विकास की मुख्यधारा से जोड़ा जा सके। यदि हम समानता पर आधारित शोषण रहित समावेशी समाज का निर्माण करना चाहते हैं तो हमें अपने कामगार वर्ग के लिए आर्थिक एवं सामाजिक सुरक्षा के साथ-साथ गरिमापूर्ण जीवन की उपलब्धता सुनिश्चित करनी होगी और इसके लिए सामूहिक प्रयासों की आवश्यकता है।

लेखक- डॉ. सत्यपाल सिंह मीना, इंदौर में पदस्थ भारतीय राजस्व सेवा के अधिकारी है। आप सोच बदलो गांव बदलो एनजीओ के सदस्य भी हैँ।

 

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