विश्व रक्तदान दिवस  (World Blood Donor Day ) प्रतिवर्ष 14 जून को मनाया जाता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने वर्ष 1997 में स्वैच्छिक रक्तदान नीति की शुरुआत की थी। विश्व स्वास्थ्य संगठन का मानना था कि दुनिया के सभी देश अपने यहां स्वैच्छिक रक्तदान को बढ़ावा दें। इसके पीछे उद्देश्य था कि खून के लिए किसी को पैसे देने की जरूरत नहीं पड़नी चाहिये।  दुनिया के 49 देशों में रक्तदान करने वाले रक्तदाता रक्तदान के लिए पैसे नहीं लेते हैं। ब्राजील में रक्तदान की एवज में कुछ भी नहीं लेने का कानून है।  लेकिन भारत जैसे देश में रक्तदाता रक्तदान के लिए कई बार पैसे लेते हैं।

विश्व रक्तदान दिवस 14 जून को ही क्यों मनाते हैं। इसके पीछे वजह है कार्ल लेण्डस्टाइनर का जन्मदिवस। कार्ल लेण्डस्टाइनर ऑस्ट्रेलिया के प्रख्यात जीवविज्ञानी और भौतिकीविद थे। उनका जन्म 14 जून 1868 को हुआ था जबकि मृत्यु 26 जून 1943 को हुई थी। कॉर्ल लेण्डस्टाइनर ने खून में अग्गुल्युटिनिन की मौजूदगी के आधार पर रक्त को अलग-अलग समूह (Blood Groups) ए, बी और ओ में बांटा था। रक्त के समूह वर्गीकरण के लिए 1930 में कार्ल लेण्डस्टाइनर को शरीर विज्ञान का नोबेल पुरस्कार भी प्रदान किया गया था। कार्ल लेण्डस्टाइनगर की रक्त को लेकर की गई इस खोज ने चिकित्सा विज्ञानियों को बहुत बड़ी सहूलियत पहुंचाई है।

 

विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक भारत में प्रतिवर्ष एक करोड़ यूनिट ब्लड की आवश्यकता पड़ती है। लेकिन देश के सभी अस्पताल और ब्लड बैंकों को मिलाकर 75 लाख यूनिट से ज्यादा ब्लड नहीं मिल पाता है। यानि कि 25 लाख यूनिट रक्त के अभाव में हर साल हजारों मरीज दम तोड़ देते हैं। देश की राजधानी दिल्ली में  ही  हर साल 350 लाख यूनिट ब्लड की आवश्यकता हर साल रहती है। स्वैच्छिक रक्तदाताओं से इसका 30 फीसदी रक्त ही जमा हो पाता है। दिल्ली जैसी स्थिति देश के बाकी शहरों की भी है।

भारत की आबादी 130 करोड़ पहुंच चुकी है। लेकिन इस आबादी के मुकाबले स्वैच्छिक रक्तदान करने वाले लोगों की संख्या नहीं बढ़ी है। जानकारों के मुताबिक भारत में कुल रक्तदान का केवल 59 फीसदी रक्तदान  ही स्वैच्छिक होता है।

नेपाल जैसे छोटे देश में रक्त की कुल ज़रूरत का 90 फीसदी ब्लड स्वैच्छिक रक्तदान से पूरा होता है। श्रीलंका में 60 फीसदी, थाईलैंड में 95 फीसदी, इण्डोनेशिया में 77 फीसदी और बर्मा में ब्लड का 60 फीसदी हिस्सा स्वैच्छिक रक्तदान से आता है।

रक्तदान से क्यों कतराते हैं लोग।

खून की महिमा सभी जानते हैं, इसे परखनली और प्रयोगशाला में नहीं बनाय जा सकता है। खून से हर किसी की जिंदगी चलती है। चाहे वो इंसान हो या जानवर। भारत जैसे विशाल देश में तमाम तरह के अंधविश्वासों के बीच एक अंधविश्वास ये भी है कि रक्तदान करने से शरीर कमजोर हो जाता है। लोगों के बीच ये भ्रांति है कि दान किये गए रक्त की भरपाई के लिए महीनों लग जाते हैं। लोगों के बीच एक गलत धारणा ये भी है कि रक्तदान करने वाले की रोगप्रतिरोधक क्षमता घट जाती है और उसे बीमारियां जल्दी घेर लेती हैं।

इसी तरह की कई भ्रांतियों के चलते भारत में लोग स्वैच्छिक रक्तदान करने से कतराते हैं। रक्त की इसी कमी का फायदा उठाकर कुछ नशेड़ी, गरीब और आपराधिक प्रवृत्ति के लोग अपनी पैसे की जरूरत को पूरा करने के लिए अस्पतालों में पैसे लेकर रक्तदान करते रहते हैं। ऐसे लोगों को जमा करने के लिए देश के तमाम शहरों में रैकेट तक सक्रिय हैं, लेकिन इनका ये रक्त कई बार मरीजों की जान पर भारी पड़ जाता है। क्योंकि पैसे लेकर रक्दान करने वाले कई बार अपनी बीमारी और अन्य जानकारियों को छुपा जाते हैं।

कैसे आए जागरूकता ?

दुनिया में रक्त की इसी कमी को दूर करे और लोगों के बीच बैठी अंधविश्वास की धारणाओं को खत्म करने के मकसद से विश्व स्वास्थ्य संगठन ने प्रतिवर्ष 14 जून को विश्व रक्तदाता दिवस मनाने की शुरुआत की थी। इसका मकसद है कि 14 जून को बड़े पैमाने पर रक्तदान कैंप आयोजित करके लोगों को स्वैच्छिक रक्तदान के लिए प्रोत्साहित किया जाए। रक्तदान करने वाले रक्तदाताओं को सम्मान किया जाए। ऐसे रक्तदाता आगे आकर समाज को भ्रांतियों से दूर रहने और मानव कल्याण में रक्तदान अवश्य करने का संकल्प दिला सकते हैं। भारतीय रेडक्रास सोसायटी के अलावा निजी ब्लड बैंक भी स्वैच्छिक रक्तदान की इस मुहिम में विश्व स्वास्थ्य संगठन के साथ खड़े हैं।

रक्तदान अवश्य करें।

  • आमजन को यह पता होना चाहिए कि मनुष्य के शरीर में रक्त बनने की प्रक्रिया हमेशा चलती रहती है और रक्तदान से कोई भी नुकसान नहीं होता बल्कि यह तो बहुत ही कल्याणकारी कार्य है जिसे जब भी अवसर मिले संपन्न करना ही चाहिए।
  • रक्तदान के सम्बन्ध में चिकित्सा विज्ञान कहता है, कोई भी स्वस्थ्य व्यक्ति जिसकी उम्र 16 से 60 साल के बीच हो, जो 45 किलोग्राम से अधिक वजन का हो और जिसे जो एचआईवी, हेपाटिटिस बी या हेपाटिटिस सी जैसी बीमारी न हुई हो, वह रक्तदान कर सकता है।
  • एक बार में जो 350 मिलीग्राम रक्त दिया जाता है, उसकी पूर्ति शरीर में चौबीस घण्टे के अन्दर हो जाती है और गुणवत्ता की पूर्ति 21 दिनों के भीतर हो जाती है। दूसरे, जो व्यक्ति नियमित रक्तदान करते हैं उन्हें ह्रदय रोग सम्बन्धी बीमारियां कम परेशान करती हैं।
  • रक्त की संरचना ऐसी है कि उसमें समाहित लाल रक्त कोशिकाएँ तीन माह में (120 दिन) स्वयं ही मर जाते हैं, लिहाज़ा प्रत्येक स्वस्थ्य व्यक्ति तीन माह में एक बार रक्तदान कर सकता है। जानकारों के मुताबिक आधा लीटर रक्त तीन लोगों की जान बचा सकता है।
  • चिकित्सकों के मुताबिक रक्त का लम्बे समय तक भण्डारण नहीं किया जा सकता है।

टाईम्स ऑफ़ इण्डिया में प्रकाशित एक रिपोर्ट बताती है कि रक्तदान के बारे में व्याप्त तमाम मिथकों के टूटने के बाद लोगों में इसे लेकर इतना उत्साह का वातावरण रहता है कि लोग शादी के मण्डप के बाहर रक्तदान शिविर रखते हैं या किसी श्रद्धांजलि सभा के स्थान पर रक्तदान शिविर का आयोजन करते हैं।

सभ्यता के विकास की दौड़ में मनुष्य भले ही कितना आगे निकल जाए, पर ज़रूरत पड़ने पर आज भी एक मनुष्य दूसरे को अपना रक्त देने में हिचकिचाता है। रक्तदान के प्रति जागरूकता लाने की तमाम कोशिशों के बावजूद मनुष्य को मनुष्य का रक्त ख़रीदना ही पड़ता है। इससे बड़ी विडंबना और क्या हो सकती है कि कई दुर्घटनाओं में रक्त की समय पर आपूर्ति न होने के कारण लोग असमय मौत के मुँह में चले जाते हैं। रक्तदान के प्रति जागरूकता जिस स्तर पर लाई जाना चाहिए थी, उस स्तर पर न तो कोशिश हुई और न लोग जागरूक हुए।

भारत में आज तक एक भी केंद्रीयकृत रक्त बैंक की स्थापना नहीं हो सकी है जिसके माध्यम से पूरे देश में कहीं पर भी रक्त की ज़रूरत को पूरा किया जा सके। टेक्नोलॉजी में हुए विकास के बाद निजी तौर पर वेबसाइट्स के माध्यम से ब्लड बैंक व स्वैच्छिक रक्तदाताओं की सूची को बनाने का कार्य आरंभ हुआ। इसमें थोड़ी-बहुत सफलता भी मिली, लेकिन संतोषजनक हालात अभी नहीं बने।

बिलासा ब्लड बैंक रायपुर की डॉ. अवलोकिता साहू कहती हैं कि  85 फीसदी रक्तदान स्वैच्छिक होता है और इसे 95 फीसदी तक करने की कार्ययोजना है। ब्लड कैंप और मोबाइल कैंप लगा कर लोगों को रक्तदान के लिए प्रेरित करना चाहिए। लोगों को बताना होगा कि रक्तदान का कोई भी दुष्प्रभाव नहीं बल्कि यह आपको लोगों की जान बचाने वाला सुपरहीरो बनाता है। जागरुक लोगों को इस दिशा में सोचना होगा कि कैसे देश की अधिकांश आबादी को रक्तदान की महिमा समझाई जाए ताकि वे वक्त-हालात को समझ सकें और जब भी ज़रूरत हो इस परोपकारी कृत्य से पीछे ना हटें।

डॉ. अवलोकिता साहू ने बताया कि अस्सी के दशक के बाद रक्तदान करते समय काफ़ी सावधानी बरती जाने लगी है। रक्तदाता भी खुद यह जानकारी लेता है कि क्या रक्तदान के दौरान सही तरीके के चिकित्सकीय उपकरण प्रयोग किए जा रहे हैं। वैसे एड्स के कारण जहाँ जागरूकता बढ़ी, वहीं आम रक्तदाता के मन में भय भी बैठा है। इससे भी रक्तदान के प्रति उत्साह में कमी आई। इसका फ़ायदा कई ऐसे लोगों ने उठाया जिनका काम ही रक्त बेचना है।

 

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