संपादकीय, 18 नवंबर 2020

243 सदस्यीय बिहार विधानसभा के चुनाव में 70 सीटों पर चुनाव लड़ने वाली कांग्रेस पार्टी बमुश्किल 19 सीटें ही जीत पाई है। 10 नवंबर को आए विधानसभा चुनाव नतीजों के बाद कांग्रेस बिहार में खुद को तीसरे पायदान पर खड़ा पाती है। बड़ी बेसब्री से आरजेडी के साथ सत्ता सुख भोगने की लालसा पाने वाले कांग्रेसियों का सपना नतीजों के साथ ही छन से टूट गया। लेकिन सपना टूटने साथ ही उछले टुकड़े अब रह-रह कांग्रेस आलाकमान पर निशाना साध रहे हैं। चुनाव में हार के ठीक बाद बिहार कांग्रेस अध्यक्ष मदन मोहन झा निशाने पर आए। बिहार के पूर्व कांग्रेस विधायक ऋषि मिश्रा ने मदन मोहन झा की भूमिका को लेकर कांग्रेस आलाकमान से शिकायत तक कर डाली।

ये सिलसिला थमता उसी के साथ मध्यप्रदेश सहित कई राज्यों में हुए उपचुनावों में भी कांग्रेस को पटखनी खानी पड़ गई। जैसे तैसे दिवाली का त्योहार बीता औऱ सिब्बल नाम का बम फूट पड़ा। सिब्बल ने कांग्रेसियों को गिरेबां में झांकने की नसीहत देते हुए सीख दे डाली कि अभी भी वक्त है जमीनी सच्चाई को पहचानिये..कांग्रेस के साथ देश नहीं खड़ा है। सिब्बल का इतना कहना भर था कि सलमान खुर्शीद ने उन्हें हद में रहने की हिदायत दे डाली।

इत्तेफाक देखिये कि कपिल सिब्बल औऱ सलमान खुर्शीद दोनों ही वकील हैं। सुप्रीम कोर्ट में तमाम केस लड़ते, जीतते रहे हैं। यूपीए वन और यूुपीए-2 के दौरान खुर्शीद और सिब्बल का कद सबने देखा है। लेकिन बिहार विधानसभा चुनाव और उपचुनावों के परिणाम के बाद फिर से कांग्रेस में नेतृत्व की कलह खुलकर सामने आ गई है। क्या कपिल सिब्बल कहना चाहते हैं कि गांधी उपनाम की वजह से देश की जनता कांग्रेस से नहीं जुड़ पा रही है। क्या कपिल सिब्बल ये कहना चाहते हैं कि गांधी परिवार के इतर किसी कांग्रेसी को कांग्रेस की कमान सौंपी जाए, तो कांग्रेस अपनी कब्र से वापस बाहर निकल आएगी।

ज्यादा दिन नहीं बीते जब मध्यप्रदेश में सरकार बनाकर भी कांग्रेस के कमलनाथ के हाथ से सिंहासन खिसक गया या यों कहिये की कमलनाथ के नीचे से सिंहासन खींच लिया गया। ज्यादा दूर की बात नहीं है जब ज्योतिरादित्य सिंधिया कमल पकड़कर कांग्रेस की ओर हाथ हिलाने लगे थे। सचिन पायलट, विश्वेन्द्र सिंह को लेकर राजस्थान के सीएम अशोक गहलोत की बदजुबानी को भी लोग भूले नहीं है। राजस्थान में कोरोना संकट के बीच महीने भर तक रिसॉर्ट-रिसॉर्ट का जो नाटक खेला गया, उसने कांग्रेस की किरकिरी ही ज्यादा कराई है।

पूरे 15 साल के लंबे इंतजार के बाद दंडकारण्य (छत्तीसगढ़) में 68 सीटों के साथ पहली बार सत्ता में आई कांग्रेस की भितरघात भी किसी से छुपी नहीं हैं। मुख्यमंत्री की कुर्सी को लेकर जिस तरह से एक के बाद एक दावेदारों के नाम सामने आते रहे। स्वास्थ्य मंत्री और मुख्यमंत्री के बीच की अदावत भी ट्विटर पर गाहे-बगाहे सामने आती रही। इतना ही नहीं मुख्यमंत्री के निर्देश पर दोपहिया चालकों को हेलमेट अऩिवार्य लगाने का निर्देश देने वाले प्रदेश की राजधानी के पुलिस कप्तान के आदेश के खिलाफ कांग्रेस के नए नवेले विधायक ने अपनी ही सरकार के खिलाफ जाकर् 24 घंटे का अल्टीमेटम दे डाला था। इस अल्टीमेटम का असर पार्टी के प्रदेश प्रभारी पन्नालाल पूनिया को भी उठाना पड़ा।

कांग्रेस पार्टी के भीतर अलग-अलग राज्यों में जब-तब मुखर होती रही इन क्रांतिनुमा छोटी चिंगारियों को कांग्रेस के ही बड़े नेता बड़े-बड़े दलों में ऐसी छोटी-मोटी बातें होती रहती हैं, कहकर जवाब देने से बचने की मुद्रा में नजर आते रहे हैं। लेकिन कांग्रेस बनाम कांग्रेस का ये विवाद थम नहीं रहा है बल्कि बढ़ता ही जा रहा है। दिल्ली में अमित शाह, गड़करी और धर्मेन्द्र प्रधान से मिलकर रायपुर लौटे भूपेश बघेल ने प्रदेश कांग्रेस नेताओं से पार्टी की अंतर्कलह को अंदरूनी मामला बताकर इस पर किसी भी तरह की बयानबाजी से बचने की सलाह अपने नेताओं को दे डाली है।  लेकिन कांग्रेस है कि मानती नहीं हैं। अब अधीर रंजन चौधरी ने कपिल सिब्बल को आड़े हाथों लिया है। कपिल सिब्बल पर निशाना साधते हुए अधीर रंजन चौधरी ने कहा है कि बिना कुछ किए बोलने का मतलब आत्मविश्लेषण नहीं है।

अधीर रंजन चौधरी ने कहा, ‘कपिल सिब्बल ने पहले भी इस बारे में बात की थी। वह कांग्रेस पार्टी और आत्मनिरीक्षण (आत्मविश्लेषण) की जरूरत के बारे में बहुत चिंतित हैं। लेकिन हमने बिहार, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश या गुजरात चुनावों में उनका चेहरा नहीं देखा।’ दरअसल, कांग्रेस नेता कपिल सिब्बल ने एक साक्षात्कार में बिहार विधान सभा चुनाव और मध्य प्रदेश उपचुनाव के परिणामों के मद्देनजर पार्टी के भीतर आत्मनिरीक्षण की जरूरत की वकालत की है।

अधीर रंजन चौधरी ने कहा कि ‘अगर कपिल सिब्बल बिहार और मध्य प्रदेश में चले जाते, तो वह साबित कर सकते थे कि वह जो कह रहे हैं वह सही है और इससे कांग्रेस की स्थिति मजबूत हुई है। सिर्फ बात करने से कुछ नहीं होगा। बिना कुछ किए बोलने का मतलब आत्मनिरीक्षण नहीं है।’ इससे पहले राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने भी कपिल सिब्बल पर निशाना साधा था और कहा था कि पार्टी के आंतरिक मसले को मीडिया में ले जाना सही नहीं है और इससे देशभर के कार्यकर्ताओं के मनोबल को ठेस पहुंचेगी।

कपिल सिब्बल ने लीडरशिप पर उठाए सवाल?
पूर्व केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल ने पार्टी की लीडरशिप पर भी सवाल उठाए हैं। सिब्बल से जब इंटरव्यू में सवाल पूछा गया कि क्या पार्टी लीडरशिप बिहार हार को एक और हार की तरह देख रही है, तो उन्होंने कहा था, ‘मुझे नहीं मालूम। मैं यहां सिर्फ अपने बारे में बात कर रहा हूं। मैंने लीडरशिप को मुझे कुछ भी बताते हुए नहीं सुना। इसलिए, मुझे नहीं मालूम। मुझे बस लीडरशिप के आसपास वाली आवाजें ही सुनाई देती हैं। हमें अभी भी कांग्रेस पार्टी से बिहार चुनाव और  उप-चुनाव में हालिया प्रदर्शन पर उनकी राय का इंतजार है। सिब्बल ने कहा, ”यह भी हो सकता है कि वे सोचते हों कि सबकुछ ठीक है और इसे हमेशा की तरह लेते हों।’

छह सालों से कांग्रेस ने नहीं किया आत्मविश्लेषण: सिब्बल
कांग्रेस नेता कपिल सिब्बल ने पार्टी लीडरशिप पर आरोप लगाते हुए कहा है, ‘अगर कांग्रेस ने पिछले छह सालों में आत्मविश्लेषण नहीं किया है तो अब क्या उम्मीद है कि अभी करेगी?  हमें पता है कि कांग्रेस में क्या गलत है। संगठनात्मक रूप से, हम जानते हैं कि क्या गलत है। मुझे लगता है कि हमारे पास सभी जवाब हैं। कांग्रेस पार्टी खुद ही सारे जवाब जानती है। लेकिन वे उन जवाबों को पहचानने की इच्छुक नहीं हैं। यदि वे उन जवाबों को नहीं ढूंढती है तो फिर ग्राफ में गिरावट जारी रहेगी।’

कांग्रेस की अंतर्कलह का मुद्दा सिर्फ कपिल सिब्बल ही हों ऐसा भी नहीं हैं, कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पी. चिदंबरम भी सिब्बल के सवाल से सहमत नजर आते हैं। चिदंबरम देश के अलग-अलग राज्यों में कांग्रेस की स्थिति का आंकड़ेवार विश्लेषण करते हुए कहते हैं कि “चुनावों के नतीजे बताते हैं कि जमीनी स्तर पर कांग्रेस कहीं नहीं हैं” यानि पार्टी आलाकमान को मुंगेरीलाल बनने से बचना चाहिये और धरालत पर आना चाहिये।चिदंबरम का कहना है कि जमीनी स्तर पर कांग्रेस का संगठन कमजोर हो चुका है, पार्टी औऱ संगठन को हर स्तर पर आत्मंथन की जरूरत है।

कांग्रेस के नेताओं के बीच चल रहे आपसी बयानों को अगर सूत न कपास, जुलाहों में लट्ठमलट्ठा कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। बल्कि हो ऐसा ही रहा है। कोरोना संकट, बेरोजगारी, महंगाई, नोटबंदी, जीडीपी, बैंकों के दिवालिया होने, जीएसटी, कालाधन, राफेल विमान सौदा, किसान कानून, बिहार में बाढ़, जैसे तमाम मुद्दों पर मुखर होने के बावजूद कांग्रेस उपचुनाव और विधानसभा चुनावों में अच्छा प्रदर्शन नहीं कर सकी है। छत्तीसगढ़ को अपवाद मान लें तो किसी अन्य राज्य में कांग्रेस अपनी उम्मीद के मुताबिक सीटें तक नहीं निकाल पाई है। राजस्थान जैसे राज्यों में जहां सरकार बन भी गई तो उसके भी अस्थिर होने का खतरा हर वक्त मंडराता रहा है। कांग्रेस के किस्से अनंत हैं, लेकिन हकीकत तो ये है कि कांग्रेस के भीतर खुद के दम पर पूरी ताकत के साथ उठ खड़े होने का दमखम दिखाई नहीं दे रहा है। क्या इसके पीछे नेताओं की सत्ता लालसा है या जमीनी मेहनत नहीं करने के साहस की कमी है। बहरहाल, महाराष्ट्र में जैसे-तैसे सरकार खींच रही कांग्रेस के सामने पश्चिम बंगाल, असम, पुडुचेरी के चुनाव एक और अग्निपरीक्षा बनकर खड़े हैं। अगर इन चुनावों में भी कांग्रेस का हाथ खुद को नहीं संभाल पाता है तो फिर कांग्रेस का राम ही रखवाला है।

0Shares
loading...

You missed